Thursday, September 27, 2012

क़ाश..... (by युगदीप शर्मा)


कभी तूफां में टूट के , बिखरना भी पड़ता है।
सागर की हर कश्ती की, मंजिल नहीं होती।

ख्वाबों में मुलाक़ात भी, अच्छी है मेरे दोस्त।
इंसान की हर मुराद कभी, पूरी नहीं होती।

आज फिर चौराहे पे खड़ा, है इक मुसाफ़िर।
जाने पूरी क्यूँ उसकी, फ़रियाद नहीं होती।

इस दर्द-ए-दिल का इलाज क्या, बतलायेगा कोई।
यह मर्ज़ ऐसा है जिसकी कोई, मियाद नहीं होती।

आज फिर से बैठा हूँ, यह सोचता हूँ मैं।
तू जो होती-काश-मेरी जिन्दगी , यूँ बरबाद नहीं होती।

डोर मुहब्बत की जो, मजबूत होती ग़र।
तू मेरी यादों से यूँ, आज़ाद नहीं होती।

आँधी में चरांगाँ जो, साथ न छोड़ता अगर।
तो आज अँधेरों से ये बस्ती, आबाद नहीं होती।

गर तेरी बेवफ़ाई का, मालूम होता मुझे।
तो शायद ये मेरी हालात ,तेरे बाद नहीं होती।

क़ाश होता यूँ की दिल, धड़कता ना कोई।
नज़रें ना मिलतीं कभी, और कोई याद नहीं होती।
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युगदीप शर्मा - Year 2011 

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