ये सामाजिक मर्यादाएं,
कैसे तोडूँ, कैसे छोडूँ,
माना तुम अच्छी लगती हो,
कैसे कह दूँ, कैसे बोलूँ..!!
कर-कर गिनती हार गया मैं,
रिश्तों में इतनी गांठें हैं,
जिनको हम अपना कहते थे,
उन अपनों ने ही ग़म बांटे हैं.
ये रिश्तों की अ-सुलझ गांठें,
कब सुलझाऊं, कैसे खोलूं,
माना तुम अच्छी लगती हो,
कैसे कह दूँ, कैसे बोलूँ..!!
तुमसे पूछा- साथ चलोगी?
उत्तर में फिर प्रश्न मिले,
प्रश्नों को हल करने बैठा,
तो कुछ मुर्दा जश्न मिले.
फिर तुम्ही बताओ इन प्रश्नों का
हल किस पोथी पुस्तक में खोजूं?
माना तुम अच्छी लगती हो,
कैसे कह दूँ, कैसे बोलूँ..!!
अब तक चेहरे बहुत पढ़े हैं,
पर तेरे भाव समझ ना पाया,
जितना गहरे उतर के देखा,
उतना घना अँधेरा पाया,
सारे दीपक बुझे पड़े हैं,
मैं किस-किस दीपक को लौ दूँ,
माना तुम अच्छी लगती हो,
कैसे कह दूँ, कैसे बोलूँ..!!
जीवन में अगणित दुविधाएं,
लंगर डाले पड़ी हुई हैं,
हर ओर घना तूफ़ान मचा है,
जीवन तरणी फंसी हुई है,
फिर इन जीवन झंझावातों में
तुम्ही बताओ क्यूँ ना डोलूं,
माना तुम अच्छी लगती हो,
कैसे कह दूँ, कैसे बोलूँ..!!
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युगदीप शर्मा ( दि०: २३ जनवरी, २०१३)