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Friday, October 11, 2019

असलियत ...!!! (by युगदीप शर्मा)

तेरी आँखों पे ग़ज़लें हज़ारों हुईं,
तेरी नज़रों ने कातिल होने
के इलज़ाम लिये।

तेरी पलकों पे ओस भी कई दफा ठहरी,
तेरे लबों को बहुतों ने जाम कहा।

तेरे रुख में बहुतों को चाँद नज़र आया
तेरी जुल्फों से कई बार घटा बरस गई
तेरे पोरों को किसी ने फूल कहा
तो कुछ ने हथेली पर उठाए पाँव,
कि कहीं जमीं से मैले न हों।

तेरी अँगड़ाइयाँ जंगों का सबब बनी,
तेरो अदाओं से हज़ारों हलकान हुए।
--
जिसने जैसा चाहा, 
वैसा रूप देखा।
किसी ने पूजा, किसी ने चाहा, किसी ने भोगा,
किसी ने मूरत , किसी ने वस्तु,
तो किसी ने तुमको बाजार बना दिया
कभी जंग, कभी कारण, तो कभी हथियार बनी ,

और तुम, खुद भी भूल गयी कि

तुम क्या थी, क्या हो, और क्या होगी।
यही तो माया है। 
महा ठगिनी।

ये सब शायरों के ख्वाब थे,
और कुछ तरीके,
कि तुम भूल जाओ अस्तित्व,
और जी लो , दूसरों ले मुताबिक।

और हाँ,
बराबरी?

हह... भूल जाओ।

*********
युगदीप शर्मा ( दिनांक ११ अक्टूबर, २०१९ , प्रातः ११ बजे , पुणे में )

आज चलो कुछ और लिखें ...!!! (by युगदीप शर्मा)


कुछ झूठे जज्बात लिखें

या फिर से वो ही बात लिखें।

सदियों लंबी रात लिखें या

जगना बरसों बाद लिखें।


कलमों की चिंगारी से

कागज में लगती आग लिखें

आ चल फिर से कुछ आज लिखें।




गूंगों की आवाज लिखें,

या पंख कटी परवाज लिखें ।

इन शहरी खंडहरों से,

उड़ती इंसानी राख लिखें।


ऊंचे महलों को थर्रा दे,

वह अश्कों के सैलाब लिखें।

आ चल फिर से कुछ आज लिखें।


*********
युगदीप शर्मा ( दिनांक ८ अक्टूबर, २०१९ , रात्रि ११ बजे , पुणे में )

Wednesday, September 7, 2016

दूसरा खत...!!!

दूसरा खत...!!!

फिर कुछ प्रश्न उठे हैं मन में.
मन थोड़ा आंदोलित  भी है।
जिसको हमने साथ बुना है,
क्या वो बस एक सपना ही है?

हरदम मैं सच ही बोलूंगा,
वचन दिया है मैंने तुमको
कुछ शंका हो, निर्भय पूछो,
इस रिश्ते में सच्चाई है।

मुझे भरोसा है तुम पर
तुमको भी उतना ही होगा,
'अगर-मगर' दुनिया पे छोडो
बाकी सब कुछ अपना ही है

रिश्तों के जुड़ने से पहले,
शंकाएं भी स्वाभाविक हैं,
परिवारों को जुंड़ने दो, आखिर,
हम दोनों को जुड़ना ही है।

तू मेरे एहसासों में है
फिर ये इतनी दूरी क्यों है?
इस दूरी को कुछ काम कर दें
आखिर तो हम को मिलना ही है।

नहीं करूँगा वादे तुमसे
चंदा- फूल - सितारों के,
पर, हाँ हरदम साथ चलूँगा,
ये बिन बोला, पर, वादा ही है।



*********
युगदीप शर्मा ( दिनांक - ४ सितम्बर २०१५, दोपहर १२:३५ बजे )

तीसरा खत...!!!

आओ हम तुम कृष्ण बन जाएँ!!

आज जन्माष्टमी है,
उत्सव है कृष्ण के जन्म का,
कृष्ण -
जो प्रतीक थे प्रेम का,

वो छल भी जानते थे,
झूठ भी बोलते थे
किन्तु
वह भी अलौकिक हो जाता था
जब वह छल या  झूठ
प्रेम के वशीभूत हो होता था
वह प्रेम मानव मात्र के लिए प्रेम था

प्रेम,
बहुत बार
बहुत तरह से
परिभाषित किया गया है,
लोगों ने बहुत से लांछन भी दिए हैं इसे.
इसे सर्वोच्च स्थान भी दिया है,
पर शायद इसे गुना बहुत कम है.

आओ हम तुम गुन लें इसको
बन जाएँ हम स्वयं कृष्ण
बाधाएं बहुत सी होंगी ही
कृष्ण बनना आखिर
इतना भी आसान नहीं है.

दैहिक लौकिक जगत से परे,
यदि कर पाये प्रेम,
जन्म कर्म के बंधन से मुक्त
सिर्फ प्रेम रहेगा इस जग में,
शुद्ध प्रेम,
जिसकी कोई सीमा नहीं होगी.
तब शायद हम खुद ही कृष्ण बन पाएं।

आओ हम तुम कृष्ण बन जाएँ!!
******
युगदीप शर्मा (दिनांक- ५ सितम्बर, २०१५, प्रातः ९:३८ मिनट, स्लोवाकिया में)

तुम बिन...!!!

नहीं जी सकता, मैं तुम बिन अब।

तुमसे जब बातें करता हूँ
कुछ पागल सा हो जाता हूँ
बिना बात क्या क्या कहता हूँ
ख़ामोशी में धड़कन सुनता हूँ

यही सोचता हूँ बस हरपल
बाहों में लूंगा तुमको कब?

नहीं जी सकता, मैं तुम बिन अब।।

तुम्हे रूठना और मनाना
तुमसे हर पल प्यार जताना
बिन बोले सब कुछ कह जाना
तुमको अपनी जान बुलाना

इन सब तरकीबों, बातों से
पूरा प्यार व्यक्त हुआ कब?

नहीं जी सकता, मैं तुम बिन अब।।

कितना प्यार तुम्हे करता हूँ
एक अंश भी गर कह पाऊं
जितने जग में कागद पत्री
उनको भी गर लिख, भर जाऊं

वो सब भी कम पड़ जायेंगे
भाव व्यक्त करूँगा मैं जब।

नहीं जी सकता, मैं तुम बिन अब
*****
युगदीप शर्मा (१६ फ़रवरी २०१६, सायं ८:०० बजे)

आज फिर...!!

कनखियों से झांकती
नन्ही सुबह का रूप देखा
ज्यों क्षितिज पे बादलों ने
टांक दी हो स्वर्ण रेखा.

आज फिर उसकी नजर ने
इस नजर को हँस के देखा।

आज फिर से चंचला सी
तितलियों ने की शरारत
पलकें उसकी झुक गयीं यूँ
देख उनकी ये हिमाकत
....
देख उसकी ये नजाकत/nafasat
....
....

कुछ झिझकती बारिशों ने
आज फिर तन मन भिगोया
ज्यों थिरकती बूंदों ने हो,
मगन मन मोती पिरोया
आज फिर उन गेसुओं में,
उलझ दिल का भ्रमर खोया


आज फिर कुछ बावरे से
बादलों की छाँव ठिठकी
ज्यों उन्हें चंचल पवन ने
दी हो मीठी एक झिड़की
आज फिर उसकी अदा को
देख मेरी जान थिरकी


आज फिर उसकी हंसी ने,
इस जहाँ का दुःख समेटा

आज फिर उसकी नजर ने
इस नजर को हँस के देखा।
*****
युगदीप शर्मा (१२ अगस्त २०१३) (फाइनल ड्राफ्ट - ७ सितम्बर २०१५ स्लोवाकिया में)

Thursday, September 3, 2015

फिर चलता हूँ...!!! (by युगदीप शर्मा)

फिर चलता हूँ...!!

कुछ अपनों से
कुछ सपनों से
थोड़ा बतिया लूँ,
फिर चलता हूँ.
कुछ पल सुस्ता लूँ
फिर चलता हूँ

बहुत दिनों से
दौड़ रहा था
लक्ष्य हीन सा
बेफिकरा सा
सपनों के
टूटे रेशों से
फुरसत के कुछ
पल बुनता हूँ
कुछ पल सुस्ता लूँ
फिर चलता हूँ

जीवन की
आपा धापी में
जाने कितने
पीछे छूटे
जिनके बिन था
जीना मुश्किल
ऐसे कितने नाते टूटे

उन रिश्तों को
उन नातों को
उन लम्हों और
उन यादों को
कण- कण सँजो लूँ
फिर चलता हूँ
कुछ पल सुस्ता लूँ
फिर चलता हूँ
****************
युगदीप शर्मा (३-४ अगस्त रात्रि १२ बजे २०१४) (फाइनल ड्राफ्ट ३ सितम्बर २०१५ प्रातः ९.३० बजे, स्लोवाकिया में)

Thursday, April 9, 2015

मौसमों के मायने...!!!(by युगदीप शर्मा)

लोग
जिनके लिए बरसात की रातें
रूमानी नहीं होतीं।

लोग
जिनके लिए बरसात का मतलब
टपकती छतों या गीली लकड़ियों से बढ़ कर
कुछ नहीं होता।

लोग
जो काट देते हैं रातें
टांगों के बीच बाल्टी रख
छतों से टपकता सैलाब कैद करने को
और सो जाते हैं बेखबर
बिस्तर के उस एक कोने पर
जो कम गीला है।

लोग
जिनके लिए सर्दियों का मतलब
उन शूलों से है
जो
कम्बलों और गूदड़ियों के
छेदों से निकल
भेदते रहते हैं उनके कंकाल

लोग
जिनका हर दिन,
रात काटने की तैयारियों में
और रातें
दिन की उम्मीद में गुजरती हैं

उनकी सर्दियां गुलाबी नहीं
स्याह होती हैं।

लोग
जो हमारे अन्नदाता हैं
जिनके बनाये लत्ते पहन,
जिनकी बिछायी छतों की छाँव में
हम जिनके भाग्यविधाता होने का
दम्भ भरते हैं।

उन लोगों को
लू के थपेड़े सच में बहुत राहत देते हैं।
*****************
युगदीप शर्मा (दिनाँक- १५/१६ मार्च २०१५ रात्रि १२.११ बजे ) (फाइनल ड्राफ्ट - ८/९ अप्रैल २०१५ रात्रि १:४० बजे)

Saturday, March 8, 2014

लहू का रंग ...!!! (by युगदीप शर्मा)

कभी कभी क्यों लगता है कि..
जिंदगी घिसट रही है..
और  रगों में दौड़ रहा है कुछ..
कुन-कुना पानी..

आज-कल चाय कि दूकान पे-
"छोटू" को आवाज लगाते हुए..
किसी guilt की -
परछाई भी नहीं पड़ती मुझ पे..

ना ही सड़क पे दौड़ते पिल्ले को,
गाड़ियों के बीच से-
हटाने के लिए रुकता हूँ मैं..

आज-कल लोगों से..
अनायास ही 'surname' भी पूछ लेता हूँ
जात-पांत/ ऊँच-नीच/ भेद-भाव..
समाज के अंग लगते हैं अब।

अब ५५ साल के security guard से,
"good morning 'sir'" सुनने में शर्म नहीं आती …
ना ही किसी रिक्शेवाले से ..
5 रुपये के लिए मोलभाव करते बुरा लगता है।

अब गुस्सा नहीं आता…
नेताओं, अफसरों, -
पत्रकारों की बदतमीजियों पे..
ना ही खीझ होती है..

ये सच है..
सब ऐसा ही चलता रहा है
सब ऐसा ही चलता रहेगा
मेरे कुछ उखाड़ लेने से क्या होगा?

तभी तो बदल गया है..
खून का तापमान

कुन-कुना हो गया है अब।

पर हाँ ..कुछ बात है कि..
रंग अभी तक लाल ही है।

ज्यादा दिन नहीं…
सफ़ेद हो जायेगा वो भी !!
************
युगदीप शर्मा(२४ फरवरी एवं ८ मार्च -२०१४)

Sometimes ..it feels like....
life is crawling  ..
What's running in the veins ..
is some lukewarm water ..

Nowadays at the Tea Shops
while shouting at a "Chhotu".(minor)..
i don't even feel
a tiny shadow of guilt

Neither,do i stop to,
save the puppy
running on the road ,
among the fast running vehicles..

Now sometimes Unintended..
i ask peoples their 'surnames'
Racism & Caste-ism / discrimination & Partiality / ..
Now seems a part of society .

these days, in hearing "good morning 'sir'"
from a 55 -year-old security guard ,
i don't feel ashamed at all ...
Neither it feels bad to bargain
with a Rickshaw-puller for 5 bucks .

Now i do not get angry
neither irk on the ...
Politicians and bureaucrats's or -
Journalist's insolence..
 ..

It's true ..
in the same way, it always happened
the same way, it will happen
What I can do....?

that's why temperature
of my blood has changed

it's lukewarm now

however,
The color is still red .

Not for long ...
It will become white too !

Wednesday, January 23, 2013

कशमकश..!! (by Yugdeep Sharma)


ये सामाजिक मर्यादाएं,
कैसे तोडूँ, कैसे छोडूँ,
माना तुम अच्छी लगती हो,
कैसे कह दूँ, कैसे बोलूँ..!!

कर-कर गिनती हार गया मैं,
रिश्तों में इतनी गांठें हैं,
जिनको हम अपना कहते थे,
उन अपनों ने ही ग़म बांटे हैं.
ये रिश्तों की अ-सुलझ गांठें,
कब सुलझाऊं, कैसे खोलूं,
माना तुम अच्छी लगती हो,
कैसे कह दूँ, कैसे बोलूँ..!!

तुमसे पूछा- साथ चलोगी?
उत्तर में फिर प्रश्न मिले,
प्रश्नों को हल करने बैठा,
तो कुछ मुर्दा जश्न मिले.
फिर तुम्ही बताओ इन प्रश्नों का
हल किस पोथी पुस्तक में खोजूं?
माना तुम अच्छी लगती हो,
कैसे कह दूँ, कैसे बोलूँ..!!

अब तक चेहरे बहुत पढ़े हैं,
पर तेरे भाव समझ ना पाया,
जितना गहरे उतर के देखा,
उतना घना अँधेरा पाया,
सारे दीपक बुझे पड़े हैं,
मैं किस-किस दीपक को लौ दूँ,
माना तुम अच्छी लगती हो,
कैसे कह दूँ, कैसे बोलूँ..!!

जीवन में अगणित दुविधाएं,
लंगर डाले पड़ी हुई हैं,
हर ओर घना तूफ़ान मचा है,
जीवन तरणी फंसी हुई है,
फिर इन जीवन झंझावातों में
तुम्ही बताओ क्यूँ ना डोलूं,
माना तुम अच्छी लगती हो,
कैसे कह दूँ, कैसे बोलूँ..!!
******************
युगदीप शर्मा ( दि०: २३ जनवरी, २०१३)

Friday, September 28, 2012

वो भी एक दिन था...(by युगदीप शर्मा )


तेर गेसुओं के, घने साए में,
सिर छुपा कर,
जहाँ भूल जाना,

तेरी आँखों में छिपी,
शरारत को पाकर,
दिल का मचल जाना,

तेरे उन सुकोमल-
सुवासित अधरों से,
हँसीं का छलक आना,

तेरी आँखों में खोया-खोया,
मेरा खुद को भूल जाना,

वो सिलसिला,
मिलने मिलाने का,
जमाने से छुप कर,

और हलकी सी आहट पर,
तेरा सिहर जाना,

बंद आँखों से तेरी,
सूरत का दिखना,

खुली आँखों में तेरे,
सपनों का आना,
-------------------
वो भी इक दिन था,
यह भी इक दिन है,
तनहा अकेला सा,
दिल तेरे बिन है,

ना तेरी सूरत,
ना तेरे गेसू,
अब तो ख्वाब का ,
आना जाना भी कम है,

चाहे खुली हों, या
बंद हों मेरी आँखें,
तेरी याद में अब तो
हर पल ही नाम हैं.

तेरी वो हँसीं,
तेरी वो शरारत,
बस उन्हीं यादों में,
खोये-खोये से हम हैं...
खोये-खोये से हम हैं...
खोये-खोये से हम हैं...!!!
************
युगदीप शर्मा (२३ फरवरी-२०११, सां०  ५:३०)

Thursday, September 20, 2012

शिवोहं, शिवोहं, शिवोहं!!! (by युगदीप शर्मा)

(You can see the English translation below:)

तुमने कहा  था..  कि   लड़ाई  होगी ...
क्रांति  का  नाम  भी दिया  था  उसे ...
लेकिन  वह  तो  बस ..
सिमट  कर  रह  गयी  चाय  की  चुस्कियों  में ...
कुछ  ने  उसे  सिगरेट के धुओं  में  उड़ा दिया ..

सुबह  के  अखबार में ...
जो  खबर  छपी थी ...
उसमें बासी रोटियाँ लपेट  कर
रख दी थीं कटोरदान  में ..उन्होंने.
कुत्तों  को  खिलाने  के  लिए..

लोगों  का  गुस्सा  भी  निकला  था ...
सड़कों  पे  गिज-गिजाती  नालियों  की  तरह
लेकिन  वह  तो  लोगों  का  अंदाज  था
छुट्टियां  बिताने  का ..
कुछ  तूफानी  करने  का ..

शायद  समझ  नहीं  पाए  होगे  तुम ...
और  लड़ने  चल  दिए ...

यह  भी  कोई  बात  हुई ...आखिर  ??

अपनी  औकात  भूल  कर ..
ललकारने  चले  थे .. उस बेचारे हाकिम  को
जो  वहां   बैठा  ऊँचे  तख्तों  पे ..
देख  पाता है  तो  बस  लोगों  के  थोबड़े ...
रिरियाते हुए ..घिघियाते हुए..
निगाहें  जमीं  तक  पहुँचने  ही नहीं देते  तुम  लोग ...


अभी  तक ...
तुम्हारी  तशरीफ़  में  बस  4 डंडे # थे ...
और  तुम  पांचवें##  की  बात  करते  थे . ..
आखिर किसी बात की इक हद भी होती है...
और तुम उसको फलांग कर
हाकिम के गिरेबान तक पहुँच गए...

वह तो खैर मनाओ कि राजा ने
नहीं कुचलवा दिया तुम्हे...हाथी के पैरों से..
वर्ना तुम तो थे ही इसी लायक.


बात  करते  हो ...

बस !!
बहुत  हुई  बातें  तुम्हारे  ईमान  की ...
तुम्हारे  ढकोसले ..तुम्हारे  सिद्धांत  की

कहीं  दफना दो या जला दो उन्हें..फिर
तन से लपेट कर वह भस्म बन जाओ  शिव..
और  पीलो  विष ...चले  जाओ  योग  निद्रा  में ...
वही अच्छा रहेगा तुम जैसों के लिए..**



# लोकतंत्र के ३ स्तम्भ और चौथा मीडिया
## जनलोकपाल
**यहाँ शिव के तांडव रूप का जिक्र नहीं है, क्यूंकि अहिंसा के पुजारी तांडव के बारे में सोच भी नहीं सकते !
किन्तु शायद हाकिम को उसी का इंतज़ार है!!

**************************
युगदीप शर्मा (दिनाँक - २० सितम्बर, २०१२)



I wrote a poem ... dedicated to 'Team Anna':

Shivoham, Shivoham, Shivoham!!! (I am The Shiva, I am The Shiva, I am The Shiva)
------------------------------------

You said .. "there'll be fight" ...
you gave it a name of revolution too ...
But it just got..
confined in few morning sips of tea ...
or they blew it away in cigarette fumes..

The news in
the morning news paper
was used by them
to wrap stale breads..
To feed the street dogs ..

Public anger turned out too...
like the dirty drainage running open on the streets
But that was their way ...
to celebrate Holidays ..
to do some stormy..

but You probably didn't understand ...
And started to fight for them ...

what was the matter with you?? were you insane?

you Forgot your place ..
and started to challenge the poor king ..
who sittes on the high throne ..
and Just can see the faces of peoples..
servile and cringed ...
you guys..don't let drop his gaze towards earth/reality...

till now...
you were already having 4 bamboos** up in your ass ...
but you started talking about 5th*** one...
enough is enough!
There is a limit for every thing...
but you crossed that limit..
and grabbed his(The Poor King's) collar ...

Thank God that the King
didn't crushed you by the elephant..
else... you well deserved that.

it's enough!
your honesty...
Your sham .. your principles

Somewhere bury them or Burn them .. and then
apply that ashes to your body, and become Shiva
Drink the poison ...or go to hibernation (by yoga) ...
That'll be much better for someone like you ..###


** 3 columns of constitution and 4th is media
*** Jan lokpal
### Here i am not talking about the angry face (Taandav) of lord Shiva..because the followers of peace/Non-voilance (Ahimsa) can't even think about Voilance..
But it seems the king is waiting fir that only...
**********************
Yugdeep Sharma (Updated - September 20, 2012)

Sunday, June 3, 2012

मैं चाहता हूँ....by युगदीप शर्मा- (25-26 जनवरी, 2004)


(भाग - १ ...)

मैं चाहता हूँ इस धरा को,
स्वर्ग से आगे बढ़ाना;
इस जगत को स्वप्न से, 
बढ़ कर कहीं बेहतर बनाना.

                       मैं चाहता हूँ की यहाँ,
                       हर रात दीवाली मने;
                       हर दिवस-वासर यहाँ,
                       शाश्वत पुनीत होली रहे.

मैं चाहता हूँ अश्रु-कण,
दृग में किसी के हों नहीं;
चारो तरफ सुख-शांति हो,
दारिद्र-दुःख ना हो कहीं.

                       मैं चाहता हूँ जन-जन ह्रदय,
                       उल्लास का संचार हो;
                       हर मनुज परिपूर्ण हो,
                       मधु से मधुर संसार हो.

मैं चाहता हूँ इस धरा पर,
रण का नहीं अस्तित्व हो;
श्रेष्ठता के उत्कर्ष पर,
हर व्यक्ति का व्यक्तित्व हो.

                      मैं चाहता हूँ जड़ता मिटे,
                      नव चेतना का वास हो;
                      ज्ञान का दीपक जले,
                      अज्ञान कीट का नाश हो.

मैं चाहता हूँ हर द्विपद ,
उल्लास से परिपूर्ण हो;
ज्ञान की गंगा बहे,
राम-राज्य संपूर्ण हो.

(भाग -२...)

किन्तु...

सोचने से स्वप्न सब,
साकार हो सकते नहीं;
कर्म और कर्त्तव्य पालन,
स्वप्न से बढ़ कर कहीं.

                      अतः मेरे स्वजन बंधुओ,
                      आज ही संकल्प लें;
                      वसुंधरा उत्थान हेतु,
                      आज ही यह प्रण करें-

"मैं बढूँगा लक्ष्य पथ पर,
हर स्वप्न को साकार करने;
इस धरा को स्वर्ग से, 
आगे नहीं तो स्वर्ग करने."

                      "हे मातृभूमि आशीष दे,
                     यह प्रण हमारा पूर्ण हो;
                     नव-जागरण के नाद से,
                     यह अश्व-मेध सम्पूर्ण हो."
*** युगदीप शर्मा ***
(25-26 जनवरी, 2004)

Monday, May 28, 2012

मनुष्य और पर्यावरण....Part-1 (by Yugdeep Sharma)


ईश्वर ने सोचा होगा ,
संसार बनाने से पहले;
इक सुन्दर सा जगत बनाऊं ,
हरियाली चादर पहने।

स्वछंद विचरते जीव जहाँ पर,
चहुँ दिश जहाँ खुशहाली हो;
नदियों झीलों तालाबों में,
झिल-मिल बहता पानी हो।

हर वन उपवन फूल महकते ,
डाल-डाल पंछी गाते;
कल-कल कर बहते झरने,
बादल पानी बरसाते.

उसने रेगिस्तान बनाये,
स्वर्णिम-मृदु-कालीन बिछाई;
सूरज की उगती किरणों ने,
जीवन की नव-ज्योति जगाई।

पर्वत-पर्वत, वादी-वादी,
जीवन था चहुँ-ओर खिला;
कुछ दुरूह-पर्वत-श्रृंगों को,
हिम-रूप-रजत उपहार मिला।

नदियों ने मिट्टी को सींचा,
मिट्टी ने जीवन-अन्न दिया;
पेड़ों-पौधों-औषधियों ने,
प्राण-वायु प्रदान किया।

सागर ने बादल बरसाए,
मेघों ने जल दान किया;
पवन बही रस-सुगंध लिए,
जिसने जगती को प्राण दिया।

पारस्परिकता, सह-जीविता,
जैव-संतुलन अद्भुत था;
सुन्दर जीवन चक्र बनाया,
जड़ पर चेतन की निर्भरता।

हर जड़-चेतन ने सिर्फ दिया,
ईश्वर के इस भूमंडल में;
था त्याग बस त्याग मिला,
इस जगती के कण-कण में।

*****  युगदीप शर्मा *****
(08/03/2010 @ 10 pm)