Monday, May 28, 2012

मनुष्य और पर्यावरण....Part-1 (by Yugdeep Sharma)


ईश्वर ने सोचा होगा ,
संसार बनाने से पहले;
इक सुन्दर सा जगत बनाऊं ,
हरियाली चादर पहने।

स्वछंद विचरते जीव जहाँ पर,
चहुँ दिश जहाँ खुशहाली हो;
नदियों झीलों तालाबों में,
झिल-मिल बहता पानी हो।

हर वन उपवन फूल महकते ,
डाल-डाल पंछी गाते;
कल-कल कर बहते झरने,
बादल पानी बरसाते.

उसने रेगिस्तान बनाये,
स्वर्णिम-मृदु-कालीन बिछाई;
सूरज की उगती किरणों ने,
जीवन की नव-ज्योति जगाई।

पर्वत-पर्वत, वादी-वादी,
जीवन था चहुँ-ओर खिला;
कुछ दुरूह-पर्वत-श्रृंगों को,
हिम-रूप-रजत उपहार मिला।

नदियों ने मिट्टी को सींचा,
मिट्टी ने जीवन-अन्न दिया;
पेड़ों-पौधों-औषधियों ने,
प्राण-वायु प्रदान किया।

सागर ने बादल बरसाए,
मेघों ने जल दान किया;
पवन बही रस-सुगंध लिए,
जिसने जगती को प्राण दिया।

पारस्परिकता, सह-जीविता,
जैव-संतुलन अद्भुत था;
सुन्दर जीवन चक्र बनाया,
जड़ पर चेतन की निर्भरता।

हर जड़-चेतन ने सिर्फ दिया,
ईश्वर के इस भूमंडल में;
था त्याग बस त्याग मिला,
इस जगती के कण-कण में।

*****  युगदीप शर्मा *****
(08/03/2010 @ 10 pm)

2 comments:

  1. Very nice lines... but ye saari baatein to pata theen.. he he.. Kidding.. very nice framing of words. :) Jst love it.

    ReplyDelete
  2. Thank U dear :)
    waise kabhi kabhi jo baaten pata hoti hain woh bhi remind karani padti hain.. ;)

    ReplyDelete