Wednesday, February 17, 2016

बस...!!!

वो अलसायी हुई सुबह
और तेरा उठना
कुछ कुनमुनाते हुए

अनावृत उरोजों पै
ढलकते गेसू
सांसों में बसी रात की खुशबू

अधखुली आँखें
मिचमिचाते हुए,
अंगड़ाई लेती हुई तुम

बिस्तर की सलवटें
बेतरतीब तकिये
बिखरे हुए कपड़े

परदे की झिर्रियों से
छनती धूप
धूप से धुला
तांबे सा बदन

तेरे साये को
आकार देती रेखाएं
गुम होती हुई
तेरे बदन में कहीं

अधरों के किनारों पे
एक नन्ही हंसी
तेरी कोमल सी बाँहें
और बांहों के सिरों पर मैं

बस...!!!

*****
युगदीप शर्मा (१७ फरवरी २०१६, प्रातः १०:५० बजे ) 

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