Friday, March 11, 2016

कल्पना...!!!

कभी सपनो में मिला करता था
हर रोज तुमसे
तुम मेरी कल्पना के रंगों से भरी हुई
कोई पेंटिंग हुआ करती थीं।
पर वास्तविकता में मेने जाना कि
हकीकत के सामने कल्पना के रंग फीके होते हैं।

तुम मेरी कल्पना का
 एक उपन्यास हुआ करती थीं।
जो हर शब्द के साथ साथ
हजारों भावों में डुबाती उतारती रहती थी।
पर फिर गलत था शायद मैं
तुम तो वह महा काव्य हो।
जिसे कालिदास भी रच नहीं पाते।

तुम जो कभी मेरे ख्वाबों में
संगेमरमर की मूरत हुआ करती थीं।
जिस मूरत के वशीभूत
हर रोज कुछ लिखा गाया करता था।
पर अब जाना है
तुम तो मेरा मंदिर हो।
सजीव सगुण।

हे प्रिये।

मेरा सर्वस्व निछावर
तुम पर।।

*****
युगदीप शर्मा (१६ फ़रवरी २०१६, सायं ७:४० बजे)

No comments:

Post a Comment