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Sunday, November 1, 2015

भूख और स्वाभिमान...!!!

"वो एक बेचारा भूख से मर गया"
"नहीं नहीं स्वाभिमान से मरा है…
भूख से कोई नहीं मरता"
"आदमी भूख से नहीं मरता ?"
"नहीं... स्वाभिमान से मरता है"
"हाथ फैला सकता था किसी के आगे
पर नहीं ..
मर गया ..
चोरी कर सकता था "
"अगर पकड़ा जाता तो? "
"तो पिटाई से मरता
भूख से नहीं "

"खैर छोड़ो..
आज डिनर का क्या प्रोग्राम है?"
"फोर सीजन्स चलें क्या? वहां San-Qi का खाना अच्छा है !"
************
युगदीप शर्मा (दिनांक १५ मार्च २०१४)

Thursday, September 3, 2015

फिर चलता हूँ...!!! (by युगदीप शर्मा)

फिर चलता हूँ...!!

कुछ अपनों से
कुछ सपनों से
थोड़ा बतिया लूँ,
फिर चलता हूँ.
कुछ पल सुस्ता लूँ
फिर चलता हूँ

बहुत दिनों से
दौड़ रहा था
लक्ष्य हीन सा
बेफिकरा सा
सपनों के
टूटे रेशों से
फुरसत के कुछ
पल बुनता हूँ
कुछ पल सुस्ता लूँ
फिर चलता हूँ

जीवन की
आपा धापी में
जाने कितने
पीछे छूटे
जिनके बिन था
जीना मुश्किल
ऐसे कितने नाते टूटे

उन रिश्तों को
उन नातों को
उन लम्हों और
उन यादों को
कण- कण सँजो लूँ
फिर चलता हूँ
कुछ पल सुस्ता लूँ
फिर चलता हूँ
****************
युगदीप शर्मा (३-४ अगस्त रात्रि १२ बजे २०१४) (फाइनल ड्राफ्ट ३ सितम्बर २०१५ प्रातः ९.३० बजे, स्लोवाकिया में)

Thursday, April 9, 2015

मौसमों के मायने...!!!(by युगदीप शर्मा)

लोग
जिनके लिए बरसात की रातें
रूमानी नहीं होतीं।

लोग
जिनके लिए बरसात का मतलब
टपकती छतों या गीली लकड़ियों से बढ़ कर
कुछ नहीं होता।

लोग
जो काट देते हैं रातें
टांगों के बीच बाल्टी रख
छतों से टपकता सैलाब कैद करने को
और सो जाते हैं बेखबर
बिस्तर के उस एक कोने पर
जो कम गीला है।

लोग
जिनके लिए सर्दियों का मतलब
उन शूलों से है
जो
कम्बलों और गूदड़ियों के
छेदों से निकल
भेदते रहते हैं उनके कंकाल

लोग
जिनका हर दिन,
रात काटने की तैयारियों में
और रातें
दिन की उम्मीद में गुजरती हैं

उनकी सर्दियां गुलाबी नहीं
स्याह होती हैं।

लोग
जो हमारे अन्नदाता हैं
जिनके बनाये लत्ते पहन,
जिनकी बिछायी छतों की छाँव में
हम जिनके भाग्यविधाता होने का
दम्भ भरते हैं।

उन लोगों को
लू के थपेड़े सच में बहुत राहत देते हैं।
*****************
युगदीप शर्मा (दिनाँक- १५/१६ मार्च २०१५ रात्रि १२.११ बजे ) (फाइनल ड्राफ्ट - ८/९ अप्रैल २०१५ रात्रि १:४० बजे)

Monday, October 29, 2012

अनवरत...!!! (by युगदीप शर्मा)


मैं तुझे समेटे रखता हूँ समंदर के जैसे
पर कुछ लम्हों की भाप उड़ ही जाती है
कहीं नजर छुपा कर
और दौड़ने लगती है बादलों की तरह

और फिर
इसी तरह निकल पड़ते हैं
कुछ धूप-छाँव के सिलसिले
जिन पर कभी-कभी कुछ
शामें ठहर जाया करती हैं

चंद पलकों के धुंधलके
जम जाते हैं
एक सर्द रात की शक्ल में
तब जिंदगी किसी ग्लेशिअर में
रुकी बर्फ की तरह सर्द लगने लगती है

फिर कभी जब तेरी
यादों की धूप में
पिघलने लगती है
तो लेने लगती है नदी का रूप

इसीलिए फिर खुद को
समेटने लगता हूँ
एक बाँध की तरह
पर तू
न जाने कहाँ से निकल पड़ती है

रास्ते में कहीं उफन पड़ती है
बारिशों के साथ मिलकर
बहा ले जाने मुझे

और अंत में जा मिलती है
समंदर से ही

और
यही सिलसिला
चलता आ रहा है
अनंत काल से
अनवरत ...
*************
युगदीप शर्मा (२५ अक्टूबर, २०१२)

(English Translation )
I...Like an Ocean..,
try to contain you,
but steams of few moments...
blow away..
stealing my eyes ....
And starts to run like clouds ....

And then starts a play...
of some sun and shadows ..
on which occasionally ,..
some Evenings used to rest.....

freeze like a chilled night ....
some Twilight Eyes...
And then,
as a cold Glacier ice..
life seems to be deposited

and, When...
Starts melting it again...
the sun of your memories...

takes place there ...a river

So,I starts winding up
sometimes like a dam..
but, again...out of nowhere ...
you emerge

and start conspiring,
with pouring rain..
to flood me out,
and blow me away...

And, merge in the ocean ...
you again ....and finally...
And this.. consecution ..
's been going on ...

from eternity ....
continuously ...
ceaselessly.....
**************
Yugdeep Sharma (25 October, 2012)