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Friday, October 11, 2019

आज चलो कुछ और लिखें ...!!! (by युगदीप शर्मा)


कुछ झूठे जज्बात लिखें

या फिर से वो ही बात लिखें।

सदियों लंबी रात लिखें या

जगना बरसों बाद लिखें।


कलमों की चिंगारी से

कागज में लगती आग लिखें

आ चल फिर से कुछ आज लिखें।




गूंगों की आवाज लिखें,

या पंख कटी परवाज लिखें ।

इन शहरी खंडहरों से,

उड़ती इंसानी राख लिखें।


ऊंचे महलों को थर्रा दे,

वह अश्कों के सैलाब लिखें।

आ चल फिर से कुछ आज लिखें।


*********
युगदीप शर्मा ( दिनांक ८ अक्टूबर, २०१९ , रात्रि ११ बजे , पुणे में )

Wednesday, January 25, 2017

छुटकी वाली सड़कछाप कहानी

उसने कम्बल से मुंह निकाला, रात अभी भी गहरी थी। एक कंपकंपी के साथ वो उठा। अपना कम्बल बराबर में सोई गठरी को उढा कर, एक बीड़ी सुलगाई, और किटकिटाते दांतो के साथ सड़क के उस पार जलते अलाव की ओर चल दिया।
कम्बल की गर्माहट से गठरी खुल गयी थी।

डिस्क्लेमर-धूम्रपान स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है।

***********
युगदीप शर्मा दिनांक २५ जनवरी २०१७ सायं ५.३० बजे 

Wednesday, November 16, 2016

जब झाँका कियेँगे हम...!!! (by युगदीप शर्मा)

जब भी मिलूंगा तुमसे
उस ढलती सांझ तक
और उस से परे भी

घनी रात का कलुष
धुल जायेगा
प्रेम की फुहारों से
मेरा और तेरा रंग
घुल जायेगा
करने नयी सृष्टि

और फिर
जहाँ दिन - रात मिलते हैं
धरा-आकाश सिलते हैं
वहाँ
उस दूर क्षितिज के परे से
झाँका कियेँगे हम  (अपने भूत में)
देखने वो अद्भुत रंग
जो हमने मिलके बनाया था !      
*********
युगदीप शर्मा ( दिनांक ४ अक्टूबर, २०१६, दोपहर १२:५१ बजे)              

{उसी दिन दोपहर ११:५७ बजे व्हाट्सएप्प पर भेजी हुई इस कविता के जवाब में:

स्याह काला अँधेरा मेरा
सफ़ेद खिलती चांदनी तुम्हारी...
गरजता घना बादल मेरा
दूधिया सावन की फुहार तुम्हारी....
मंजूर हो अगर बटवारा ये
तो दिन का उजाला लेके
मुझ रात में मिल जाना ..
जो ढलने लगेगी सांझ मिलने पे तेरे..
मैं भी मिलूंगी तुझे उस सांझ के ही परे...
copied        }

Wednesday, September 7, 2016

दूसरा खत...!!!

दूसरा खत...!!!

फिर कुछ प्रश्न उठे हैं मन में.
मन थोड़ा आंदोलित  भी है।
जिसको हमने साथ बुना है,
क्या वो बस एक सपना ही है?

हरदम मैं सच ही बोलूंगा,
वचन दिया है मैंने तुमको
कुछ शंका हो, निर्भय पूछो,
इस रिश्ते में सच्चाई है।

मुझे भरोसा है तुम पर
तुमको भी उतना ही होगा,
'अगर-मगर' दुनिया पे छोडो
बाकी सब कुछ अपना ही है

रिश्तों के जुड़ने से पहले,
शंकाएं भी स्वाभाविक हैं,
परिवारों को जुंड़ने दो, आखिर,
हम दोनों को जुड़ना ही है।

तू मेरे एहसासों में है
फिर ये इतनी दूरी क्यों है?
इस दूरी को कुछ काम कर दें
आखिर तो हम को मिलना ही है।

नहीं करूँगा वादे तुमसे
चंदा- फूल - सितारों के,
पर, हाँ हरदम साथ चलूँगा,
ये बिन बोला, पर, वादा ही है।



*********
युगदीप शर्मा ( दिनांक - ४ सितम्बर २०१५, दोपहर १२:३५ बजे )

तीसरा खत...!!!

आओ हम तुम कृष्ण बन जाएँ!!

आज जन्माष्टमी है,
उत्सव है कृष्ण के जन्म का,
कृष्ण -
जो प्रतीक थे प्रेम का,

वो छल भी जानते थे,
झूठ भी बोलते थे
किन्तु
वह भी अलौकिक हो जाता था
जब वह छल या  झूठ
प्रेम के वशीभूत हो होता था
वह प्रेम मानव मात्र के लिए प्रेम था

प्रेम,
बहुत बार
बहुत तरह से
परिभाषित किया गया है,
लोगों ने बहुत से लांछन भी दिए हैं इसे.
इसे सर्वोच्च स्थान भी दिया है,
पर शायद इसे गुना बहुत कम है.

आओ हम तुम गुन लें इसको
बन जाएँ हम स्वयं कृष्ण
बाधाएं बहुत सी होंगी ही
कृष्ण बनना आखिर
इतना भी आसान नहीं है.

दैहिक लौकिक जगत से परे,
यदि कर पाये प्रेम,
जन्म कर्म के बंधन से मुक्त
सिर्फ प्रेम रहेगा इस जग में,
शुद्ध प्रेम,
जिसकी कोई सीमा नहीं होगी.
तब शायद हम खुद ही कृष्ण बन पाएं।

आओ हम तुम कृष्ण बन जाएँ!!
******
युगदीप शर्मा (दिनांक- ५ सितम्बर, २०१५, प्रातः ९:३८ मिनट, स्लोवाकिया में)

तुम बिन...!!!

नहीं जी सकता, मैं तुम बिन अब।

तुमसे जब बातें करता हूँ
कुछ पागल सा हो जाता हूँ
बिना बात क्या क्या कहता हूँ
ख़ामोशी में धड़कन सुनता हूँ

यही सोचता हूँ बस हरपल
बाहों में लूंगा तुमको कब?

नहीं जी सकता, मैं तुम बिन अब।।

तुम्हे रूठना और मनाना
तुमसे हर पल प्यार जताना
बिन बोले सब कुछ कह जाना
तुमको अपनी जान बुलाना

इन सब तरकीबों, बातों से
पूरा प्यार व्यक्त हुआ कब?

नहीं जी सकता, मैं तुम बिन अब।।

कितना प्यार तुम्हे करता हूँ
एक अंश भी गर कह पाऊं
जितने जग में कागद पत्री
उनको भी गर लिख, भर जाऊं

वो सब भी कम पड़ जायेंगे
भाव व्यक्त करूँगा मैं जब।

नहीं जी सकता, मैं तुम बिन अब
*****
युगदीप शर्मा (१६ फ़रवरी २०१६, सायं ८:०० बजे)

आज फिर...!!

कनखियों से झांकती
नन्ही सुबह का रूप देखा
ज्यों क्षितिज पे बादलों ने
टांक दी हो स्वर्ण रेखा.

आज फिर उसकी नजर ने
इस नजर को हँस के देखा।

आज फिर से चंचला सी
तितलियों ने की शरारत
पलकें उसकी झुक गयीं यूँ
देख उनकी ये हिमाकत
....
देख उसकी ये नजाकत/nafasat
....
....

कुछ झिझकती बारिशों ने
आज फिर तन मन भिगोया
ज्यों थिरकती बूंदों ने हो,
मगन मन मोती पिरोया
आज फिर उन गेसुओं में,
उलझ दिल का भ्रमर खोया


आज फिर कुछ बावरे से
बादलों की छाँव ठिठकी
ज्यों उन्हें चंचल पवन ने
दी हो मीठी एक झिड़की
आज फिर उसकी अदा को
देख मेरी जान थिरकी


आज फिर उसकी हंसी ने,
इस जहाँ का दुःख समेटा

आज फिर उसकी नजर ने
इस नजर को हँस के देखा।
*****
युगदीप शर्मा (१२ अगस्त २०१३) (फाइनल ड्राफ्ट - ७ सितम्बर २०१५ स्लोवाकिया में)

Thursday, September 3, 2015

फिर चलता हूँ...!!! (by युगदीप शर्मा)

फिर चलता हूँ...!!

कुछ अपनों से
कुछ सपनों से
थोड़ा बतिया लूँ,
फिर चलता हूँ.
कुछ पल सुस्ता लूँ
फिर चलता हूँ

बहुत दिनों से
दौड़ रहा था
लक्ष्य हीन सा
बेफिकरा सा
सपनों के
टूटे रेशों से
फुरसत के कुछ
पल बुनता हूँ
कुछ पल सुस्ता लूँ
फिर चलता हूँ

जीवन की
आपा धापी में
जाने कितने
पीछे छूटे
जिनके बिन था
जीना मुश्किल
ऐसे कितने नाते टूटे

उन रिश्तों को
उन नातों को
उन लम्हों और
उन यादों को
कण- कण सँजो लूँ
फिर चलता हूँ
कुछ पल सुस्ता लूँ
फिर चलता हूँ
****************
युगदीप शर्मा (३-४ अगस्त रात्रि १२ बजे २०१४) (फाइनल ड्राफ्ट ३ सितम्बर २०१५ प्रातः ९.३० बजे, स्लोवाकिया में)

Thursday, April 9, 2015

मौसमों के मायने...!!!(by युगदीप शर्मा)

लोग
जिनके लिए बरसात की रातें
रूमानी नहीं होतीं।

लोग
जिनके लिए बरसात का मतलब
टपकती छतों या गीली लकड़ियों से बढ़ कर
कुछ नहीं होता।

लोग
जो काट देते हैं रातें
टांगों के बीच बाल्टी रख
छतों से टपकता सैलाब कैद करने को
और सो जाते हैं बेखबर
बिस्तर के उस एक कोने पर
जो कम गीला है।

लोग
जिनके लिए सर्दियों का मतलब
उन शूलों से है
जो
कम्बलों और गूदड़ियों के
छेदों से निकल
भेदते रहते हैं उनके कंकाल

लोग
जिनका हर दिन,
रात काटने की तैयारियों में
और रातें
दिन की उम्मीद में गुजरती हैं

उनकी सर्दियां गुलाबी नहीं
स्याह होती हैं।

लोग
जो हमारे अन्नदाता हैं
जिनके बनाये लत्ते पहन,
जिनकी बिछायी छतों की छाँव में
हम जिनके भाग्यविधाता होने का
दम्भ भरते हैं।

उन लोगों को
लू के थपेड़े सच में बहुत राहत देते हैं।
*****************
युगदीप शर्मा (दिनाँक- १५/१६ मार्च २०१५ रात्रि १२.११ बजे ) (फाइनल ड्राफ्ट - ८/९ अप्रैल २०१५ रात्रि १:४० बजे)

Wednesday, February 13, 2013

एहसास..!! (by Yugdeep Sharma)

तेरा वो स्पर्श सुकोमल सुनहरी सा,
मेरे एहसासों में अब तक जिन्दा है.

तेरा वो नैनों से बतियाना,
वो बलखाना, वो शरमाना,
बिन हिले लबों के चुपके से,
दिल ही दिल में, सब कह जाना.

हाथों में ले हाथ, कभी सकुचाते हुए,
हर आहट पे तेरा सिहर जाना,
तेरा वो हर इक पल, हर इक लम्हा,
मेरे एहसासों में अब तक जिन्दा है.

तेरा वो स्पर्श सुकोमल सुनहरी सा,
मेरे एहसासों में अब तक जिन्दा है.

वो नयी सुबह अलसाई सी,
कुछ थकी हुई, घबराई सी,
तेरा वो अंगड़ाई, लेकर उठना,
बिस्तर कि हर सलवट को,
हाथों से ढंकना,

उंगली से लटें
सुलझाते हुए,
दायें ले जाकर, सिर को
हलका सा झटकना,
मुसकाती हुई, तिरछी
नज़रों का फिर इठलाना,
मेरे एहसासों में अब तक जिन्दा है.

तेरा वो स्पर्श सुकोमल सुनहरी सा,
मेरे एहसासों में अब तक जिन्दा है.

वो अंतिम पल तेरी विदाई का,
तेरी पलकों से आंसूं ढलक आना,
मेरा गुस्सा, बेबसी, लाचारी,
दिल का रोना, होठों का मुसकाना,
साँसों में तूफां सुलगता सा,
वो दर्द अजब सा चुभता सा,
वो, पल में दुनिया-
आँखों में फिर जाना,
मेरे एहसासों में अब तक जिन्दा है.

तेरा वो स्पर्श सुकोमल सुनहरी सा,
मेरे एहसासों में अब तक जिन्दा है.
**************
युगदीप शर्मा (२५ मई-२०११, रात्रि ९:०० बजे)
correction date: 13/02/2013

बुद्ध..!!! (By Yugdeep Sharma)


याद है? जब पहले पहल मिली थी तुम,
बगल से एक मुस्कान के साथ गुजर गयी थी.
एक परफ्यूम की गंध के साथ
साँस में बस गयी थी तुम
तब ना कोई हवा चली थी,
ना कोई वोइलिन बजी थी.

देखा था मैंने तुझे, पलट कर जरूर,
जैसा कि मैं हर बंदी को देखता था.
क्या पता था कि वही तुम,
एक दिन आ मिलोगी मुझे,
सपने के जैसे, पलकों पे बैठ जाओगी.

दोबारा कब मिले थे, अब ये तो याद नहीं,

पर हाँ, वो एहसास
अभी भी गुदगुदा जाता है अक्सर,
शायद तुमने कुछ कहा था और मैं,
आँखें फाड़ फाड़ के देख रहा था तेरे चहरे को.


फिर जब तुमने फिर से कहा था तो,
हडबडाकर कुछ तो बोला था मैं भी..
और तुम फिर से मुस्कुरा के,
चली गयी थी...फिर से मिलने को..
वो दिन-
उसे तारीख कहूँ तो तौहीन होगी उन लम्हों की ..
-गुजरा नहीं है आज तक...
अटक गया है कहीं...कलेंडरों से परे.


फिर
ना जाने कब.. सब कुछ बदल गया...
आहिस्ते आहिस्ते...
बिना कुछ बोले भी..
जो आज तक कायम है..

बहुत सी बातें...जो तुमने कभी बोलीं ही नहीं..
बरबस ही सुन लिया करता हूँ मैं.
और तुम भी तो समझ लेती हो हर बात को..
अनकहे ही..

भाषा के मायने बदल गए हैं.. शायद...
पंख फैला लिए हैं उसने...
एहसासों को सुनने लगी है वो अब...
आँखों से बतियाती है...
शब्दों/ ध्वनियों की मोहताज नहीं है वो..


तुम्हारे साथ...हर एक पल...
एक जमीनी एहसास है...
बादलों के पार नहीं पहुँचता कभी भी ..
बहुत मजबूत हैं पांव उसके...या कि शायद जड़ें हैं.
जो कहीं गहरे तक, समेटे हुए हैं मुझे..


तेरे साथ होने पर...हर गम, हर ख़ुशी...
अपने मायने बदल देती है...
सब कुछ नया नया सा लगता है..
सारी सृष्टी झूमने लगती है इर्द-गिर्द...
इच्छा/आशा/अभिलाषा/महत्वाकांक्षाओं से परे...
शायद...बुद्ध बन जाता हूँ मैं!!
*********************
युगदीप शर्मा (१३ फरवरी, २०१३)