Thursday, December 13, 2012

खटमल...(by युगदीप शर्मा)


अक्सर रातों को.. नीदों से जाग पड़ता था .
और पाता था ..बहुत से खटमलों को..
खून चूसते हुए....
बहुत बेचैनी होती थी तब...

अब तो आदत पड़ गयी है उनकी...
उनके बिना नींद ही नहीं आती...
---------
शुरू में तो खटमल नहीं थे...
या फिर हमें ही कुछ भान न था...
तब बिस्तर भी पूरा
सुकून-ओ- आराम देता था...

फिर धीरे धीरे उन्होंने अपनी पॉश कालोनियां बना लीं...
वहीँ.... जहाँ कि हमारा बिस्तर भी था..
बिस्तर ...
जिस पर.. हम पैदा होते थे...
पैदा करते थे...
और मर जाते थे...

वहीँ आज कल खटमल भी रहने लगे हैं...
अपने किलों में ....
वहां जहाँ तक कि हम इंसानों कि पहुँच नहीं है ...
पर वो बिना रोक टोक कभी भी
पहुँच सके हैं हम तक...

इधर कुछ दिनों से ... आबादी बढ़ा ली है उन्होंने अपनी..
आज कल तो खुले आम...
दिन दहाड़े भी चूसने लगे हैं खून...

और हम भी सोचते हैं कि...बेचारा...
हमारे खून से ही तो जिन्दा है...
थोड़े से खून में ..क्या बिगड़ जाएगा हमारा...
और फिर...
चलने देते हैं यह रक्त-दान का सिलसिला..
----------
वैसे किसी जरूरत मंद को...
शायद आज तक नहीं दिया...
अपना खून...
क्योंकि वो तो इंसान है...
उसका कमजोर शरीर..अभी भी रखता है
इतनी क्षमता कि..बदल सके
दो टुकड़े रोटी को खून में...

पर बेचारा खटमल तो यह भी नहीं कर सकता...
तभी तो हम उसे दे देते हैं पूरी आजादी...
की वह मनमर्जी तरीकों से
चूस सके हमारा खून...
----------
आज कल तो सुना है कि...
खटमलों ने भी कुछ तरक्की कर ली है..
बना लिए हैं अपने blood-bank ....
आने वाली पीढ़ियों के लिए...

आज-कल वो खून को
आउट-सोर्स भी करने लगे हैं...
यहाँ तक कि सुना है....
कुछ देशों की economy ...
हमारे ही खून से चल रही है..

वहां की खटमल भी...
हमें दुआ देती है....

वाह ..कितने भले लोग हैं हम......
---------
कल अगर...
इंसानों की नस्ल ख़तम हो गयी तब....??
नहीं-नहीं...
खटमल ऐसा नहीं होने देंगे...
उन्हें तो जरूरत है...हमारे जैसे
रेंगते हुए इंसानों की....
दे रखा है उन्होंने हमें अभय-दान ....कि..
"जीते रहो...जिन्दा रहो...बस रेंगते रहो"
***********
युगदीप शर्मा (१७ दिसम्बर, २०१२)


Monday, November 12, 2012

बोल ....फिर कभी दीपक जलाएगा??? (by युगदीप शर्मा)


हा हा हा !!
वह साला ...
दीपक जलाने चला था..

भूल गया था की हमें ..
अंधेरों की लत लग चुकी है...
पर वो... चूतिया था....
समझता ही न था...

वो क्या जानता था कि..
हमारी उजालों से फटती है..
हमें अँधेरा ही पसंद है...

दीपक से आँखें
चकाचौंध होने लगतीं हमारी..
फिर कैसे सो पाते हम....
चैन से ...

तभी तो...उछालने लगे थे कीचड ...
उसके उजले दामन पै...
शायद वह कीचड ही ढक देती
उस रोशनी को....
------------
वो पक्का था....धुन का...
निकला था घर से
'खुद' को जला कर
दीपक जलाने को..

हाथ में माचिस भी थी..

तो उसने शुरू किया
कुछ...शैतान के पुतलों से....
जलाने लगा एक-एक कर
उनके महल...

हम थे....
कि घबराने लगे....
रौशनी देख कर...

उसने सोचा होगा कि..
शैतान को जलाने से...
भगवान् आ खड़े होंगे...
उसके पाले में

पर आज कल ..
चढ़ावा गिन कर decide करते हैं
भगवान् भी...
या कि फिर... अब तक..
पड़ चुकी होगी उन्हें भी शायद
इन अंधेरों की आदत ...

इतनी अंधेर-गर्दी में भी...
वो साला चूतिया....
हम को जगाने चला था..
हा हा हा !!
दीपक जलाने चला था..
-----------
कल बुझा दिया...स्साले का दीपक...
हमेशा हमेशा के लिए...
ताकि...कल फिर कोई चूतिया...
दीपक जलाने कि जुर्रत न कर सके...

हा हा हा !! साला चूतिया...!!
हा हा हा !! हा हा हा !!
*********
युगदीप शर्मा (०९ नवम्बर-२०१२)


hahaha
that moron
wanted to lit a candle..

he forgot...
we are addicted to the dark
but he...surely was an asshole
who refused to understand


didn't he know
we are afraid of light
we love the dark

candle would have
a blinding light
then how would we  continue
our deep sleep

that's why...
we started to blame him
perhaps the shadows
would had covered
his bright costume






Monday, October 29, 2012

अनवरत...!!! (by युगदीप शर्मा)


मैं तुझे समेटे रखता हूँ समंदर के जैसे
पर कुछ लम्हों की भाप उड़ ही जाती है
कहीं नजर छुपा कर
और दौड़ने लगती है बादलों की तरह

और फिर
इसी तरह निकल पड़ते हैं
कुछ धूप-छाँव के सिलसिले
जिन पर कभी-कभी कुछ
शामें ठहर जाया करती हैं

चंद पलकों के धुंधलके
जम जाते हैं
एक सर्द रात की शक्ल में
तब जिंदगी किसी ग्लेशिअर में
रुकी बर्फ की तरह सर्द लगने लगती है

फिर कभी जब तेरी
यादों की धूप में
पिघलने लगती है
तो लेने लगती है नदी का रूप

इसीलिए फिर खुद को
समेटने लगता हूँ
एक बाँध की तरह
पर तू
न जाने कहाँ से निकल पड़ती है

रास्ते में कहीं उफन पड़ती है
बारिशों के साथ मिलकर
बहा ले जाने मुझे

और अंत में जा मिलती है
समंदर से ही

और
यही सिलसिला
चलता आ रहा है
अनंत काल से
अनवरत ...
*************
युगदीप शर्मा (२५ अक्टूबर, २०१२)

(English Translation )
I...Like an Ocean..,
try to contain you,
but steams of few moments...
blow away..
stealing my eyes ....
And starts to run like clouds ....

And then starts a play...
of some sun and shadows ..
on which occasionally ,..
some Evenings used to rest.....

freeze like a chilled night ....
some Twilight Eyes...
And then,
as a cold Glacier ice..
life seems to be deposited

and, When...
Starts melting it again...
the sun of your memories...

takes place there ...a river

So,I starts winding up
sometimes like a dam..
but, again...out of nowhere ...
you emerge

and start conspiring,
with pouring rain..
to flood me out,
and blow me away...

And, merge in the ocean ...
you again ....and finally...
And this.. consecution ..
's been going on ...

from eternity ....
continuously ...
ceaselessly.....
**************
Yugdeep Sharma (25 October, 2012)

Thursday, October 18, 2012

अहिंसक क्रांति की जरूरत !!


      एक समाज या फिर देश के उत्थान के लिए एक सतत संघर्ष की जरूरत होती है. वह संघर्ष कैसा भी हो सकता है, वह हिंसक भी हो सकता है या फिर अहिंसक भी. इस संघर्ष की दिशा बहुत कुछ समाज, देश, काल और परिस्थितियों पर नर्भर करती है. साथ ही संघर्ष हमेशा बलिदान भी मांगता है. और आगे चल कर यह बलिदान ही उस संघर्ष की सततता, उद्देश्य और सम्पूर्णता में सहायक होता है.

       बहुत अच्छा तो यह हो कि हम बिना उस संघर्ष से गुजरे अपने लक्ष्य को पा सकें, परन्तु आज की परस्थितियों को देखते हुए यह एक असंभव सी बात लगती है.

      ऐसा नहीं है कि भारत में संघर्ष नहीं चल रहा है, संघर्ष चल रहा है, सतत भी है, परन्तु वह दिशा-हीन है. संघर्ष के बहुत से छोटे छोटे टापू जैसे बन गए हैं. हर किसी का अपना एक उद्देश्य है, अपना अपना एक तरीका है. जरूरत है तो उनको एक साथ लाने की. और उन सब को साथ लाने के लिए एक उत्प्रेरक कि आवश्यकता है. लोगों का यह प्रश्न कि "should we not be able to think for ourselves and vote out the corrupts" सही है..लेकिन इन अलग अलग टापुओं कि जड़ में भी यही है कि हर कोई (जो भी थोडा बहुत समझदार है ) अपनी अलग डफली लेकर अपना अलग ही राग बजा रहा है.

       भारत कि बहुसंख्यक जनता को अभी भी इन सब बातों से कोई लेना देना नहीं है. वो अभी भी जाति, धर्म और क्षेत्र के संघर्षों में उलझी हुई है. उन लोगों को साथ लाने के लिए भी उसी उत्प्रेरक कि आवश्यकता है, या कहें कि एक ऐसे नेतृत्व कि आवश्यकता है जिसका वो अन्धानुकरण कर सकें.(स्वंत्रता के आन्दोलन में इसी उत्प्रेरक का नाम "महात्मा गाँधी" था). परन्तु  विडम्बना यही है कि लोग तो अनुकरण (अन्धानुकरण) कर रहे हैं पर वह नेतृत्व अनुकरणीय नहीं है.

       यह सही है कि भारत एक गृह-युद्ध को झेलने लायक अवस्था में नहीं है, परन्तु वह अनेकों प्रकार के संघर्ष तो पहले से ही झेल रहा है. चाहे वह आतंकवाद हो, नक्सलवाद हो, या फिर पूर्वोत्तर का जनजातीय संघर्ष, चाहे वह सिख दंगों कि शक्ल में हो या हिन्दू-मुस्लिम दंगों कि शक्ल में, चाहे वह झारखंड मुक्ति संघर्ष हो या तेलंगाना, या फिर उत्तर-प्रदेश का जिलों कि सीमाओं को लेकर संघर्ष.
     
        तब क्यों नहीं इन सभी संघर्षों को एक नया आयाम देते हुए, सबको समग्र रूप में करते हुए, केवल एक उद्देश्य के लिए, केवल एक संघर्ष का रूप दें, जो कि एक नए भारत का निर्माण हो, नए समाज का निर्माण हो. इसके लिए किसी नए संघर्ष को जन्म देने की जरूरत नहीं है. जरूरत है बस एक समर्थ नेतृत्व देने की, और एक सही दिशा देने की.

(यहाँ मैं यह बात जोड़ना चाहूँगा की मैं हिंसा का कतई पक्षधर नहीं हूँ और मेरे आदर्श गाँधी जी और विवेकानंद जी हैं. और भारत को भी उन्ही के बताये मार्ग पर चलते हुए एक व्यापक अहिंसक क्रांति की जरूरत है... और जो लोग गाँधी जी के मार्ग से असहमत हैं उन्हें मैं 'हिन्द-स्वराज्य ' पढने की सलाह दूंगा.)
********************

युगदीप शर्मा- दि०-१८/१०/१२
(बकर-अड्डा के फेसबुक पर पूछे गए प्रश्न के जवाब में:
Do we really need an outside catalyst to 'awaken' us or should we not be able to think for ourselves and vote out the corrupts?
Can India afford a civil war at this point of time?)

Monday, October 1, 2012

बारिश!!! (by युगदीप शर्मा)


(You can see the English translation below:)

बहुत बारिश हो रही है बाहर..
और वो बैठे , हाथों में जाम लेकर,
शायराना अंदाज में, पकौड़ियाँ खा रहे होंगे..

पर आज.. बहुत से घरों के बाहर बैठे कुत्ते,
भूखे ही भौंकते रहेंगे!
वो घर जिन्हें डीजल से.. या
रसोई गैस से कभी साबका
नहीं पड़ा.. आज तक!

वो घर, जिनके लिए.. जंगल से बीनी
लकडियाँ भी गीली हो गयीं...और

आज वो लोग बना रहे होंगे
उस सीली हुई लकड़ी के,
धुंए में ही रोटी की शक्लें.

और शायद उन्ही रोटियों को,
अपने दीदों* से निकलती,
बारिशों के साथ निगल कर ,
सो रहेंगे..अगली सुबह तक
टपकती छत से बेखबर !!

और..उधर वो अपनी खुमारियों
का जश्न मना रहे होंगे...
शायद..मुद्रास्फीति की दर को
घटा-बढ़ा रहे होंगे !!!

*दीदे = आँखें (शायद यह शब्द बृज-भाषा में 'दीदार' शब्द से आया होगा कभी.. )
*************
युगदीप शर्मा (१ अक्टूबर- २०१२ ई० प्रातः १:४८ बजे)


English Translation:
---------------------
Rain..!!! (by Yugdeep Sharma)

It's raining heavily.. outside..
And they would be sitting,
having wine in their hands,
must be eating dumplings ..

but, Today the dogs sitting outside..
those houses,
will bark in hunger!

The houses, who never.. ever had
came to know about,
diesel or LPG!

the houses, for whom,
the timber collected from woods
became too wet ...to light their stoves..

They would be making ​​today
the faces of the breads
in the fumes/smoke..
from that wet wood;

And maybe... ;
they will swallow..those loaves
with the rain ..
Emanating from their eyes
and will sleep..
until the next morning
Regardless of leaky roofs!!

And there...
they must have been celebrating ..
their hangover...
playing with the Inflation rate!!!
**************
Yugdeep Sharma (1-oct,2012, @ 1:48 am)


Friday, September 28, 2012

वो भी एक दिन था...(by युगदीप शर्मा )


तेर गेसुओं के, घने साए में,
सिर छुपा कर,
जहाँ भूल जाना,

तेरी आँखों में छिपी,
शरारत को पाकर,
दिल का मचल जाना,

तेरे उन सुकोमल-
सुवासित अधरों से,
हँसीं का छलक आना,

तेरी आँखों में खोया-खोया,
मेरा खुद को भूल जाना,

वो सिलसिला,
मिलने मिलाने का,
जमाने से छुप कर,

और हलकी सी आहट पर,
तेरा सिहर जाना,

बंद आँखों से तेरी,
सूरत का दिखना,

खुली आँखों में तेरे,
सपनों का आना,
-------------------
वो भी इक दिन था,
यह भी इक दिन है,
तनहा अकेला सा,
दिल तेरे बिन है,

ना तेरी सूरत,
ना तेरे गेसू,
अब तो ख्वाब का ,
आना जाना भी कम है,

चाहे खुली हों, या
बंद हों मेरी आँखें,
तेरी याद में अब तो
हर पल ही नाम हैं.

तेरी वो हँसीं,
तेरी वो शरारत,
बस उन्हीं यादों में,
खोये-खोये से हम हैं...
खोये-खोये से हम हैं...
खोये-खोये से हम हैं...!!!
************
युगदीप शर्मा (२३ फरवरी-२०११, सां०  ५:३०)

Thursday, September 27, 2012

क़ाश..... (by युगदीप शर्मा)


कभी तूफां में टूट के , बिखरना भी पड़ता है।
सागर की हर कश्ती की, मंजिल नहीं होती।

ख्वाबों में मुलाक़ात भी, अच्छी है मेरे दोस्त।
इंसान की हर मुराद कभी, पूरी नहीं होती।

आज फिर चौराहे पे खड़ा, है इक मुसाफ़िर।
जाने पूरी क्यूँ उसकी, फ़रियाद नहीं होती।

इस दर्द-ए-दिल का इलाज क्या, बतलायेगा कोई।
यह मर्ज़ ऐसा है जिसकी कोई, मियाद नहीं होती।

आज फिर से बैठा हूँ, यह सोचता हूँ मैं।
तू जो होती-काश-मेरी जिन्दगी , यूँ बरबाद नहीं होती।

डोर मुहब्बत की जो, मजबूत होती ग़र।
तू मेरी यादों से यूँ, आज़ाद नहीं होती।

आँधी में चरांगाँ जो, साथ न छोड़ता अगर।
तो आज अँधेरों से ये बस्ती, आबाद नहीं होती।

गर तेरी बेवफ़ाई का, मालूम होता मुझे।
तो शायद ये मेरी हालात ,तेरे बाद नहीं होती।

क़ाश होता यूँ की दिल, धड़कता ना कोई।
नज़रें ना मिलतीं कभी, और कोई याद नहीं होती।
************
युगदीप शर्मा - Year 2011 

Thursday, September 20, 2012

शिवोहं, शिवोहं, शिवोहं!!! (by युगदीप शर्मा)

(You can see the English translation below:)

तुमने कहा  था..  कि   लड़ाई  होगी ...
क्रांति  का  नाम  भी दिया  था  उसे ...
लेकिन  वह  तो  बस ..
सिमट  कर  रह  गयी  चाय  की  चुस्कियों  में ...
कुछ  ने  उसे  सिगरेट के धुओं  में  उड़ा दिया ..

सुबह  के  अखबार में ...
जो  खबर  छपी थी ...
उसमें बासी रोटियाँ लपेट  कर
रख दी थीं कटोरदान  में ..उन्होंने.
कुत्तों  को  खिलाने  के  लिए..

लोगों  का  गुस्सा  भी  निकला  था ...
सड़कों  पे  गिज-गिजाती  नालियों  की  तरह
लेकिन  वह  तो  लोगों  का  अंदाज  था
छुट्टियां  बिताने  का ..
कुछ  तूफानी  करने  का ..

शायद  समझ  नहीं  पाए  होगे  तुम ...
और  लड़ने  चल  दिए ...

यह  भी  कोई  बात  हुई ...आखिर  ??

अपनी  औकात  भूल  कर ..
ललकारने  चले  थे .. उस बेचारे हाकिम  को
जो  वहां   बैठा  ऊँचे  तख्तों  पे ..
देख  पाता है  तो  बस  लोगों  के  थोबड़े ...
रिरियाते हुए ..घिघियाते हुए..
निगाहें  जमीं  तक  पहुँचने  ही नहीं देते  तुम  लोग ...


अभी  तक ...
तुम्हारी  तशरीफ़  में  बस  4 डंडे # थे ...
और  तुम  पांचवें##  की  बात  करते  थे . ..
आखिर किसी बात की इक हद भी होती है...
और तुम उसको फलांग कर
हाकिम के गिरेबान तक पहुँच गए...

वह तो खैर मनाओ कि राजा ने
नहीं कुचलवा दिया तुम्हे...हाथी के पैरों से..
वर्ना तुम तो थे ही इसी लायक.


बात  करते  हो ...

बस !!
बहुत  हुई  बातें  तुम्हारे  ईमान  की ...
तुम्हारे  ढकोसले ..तुम्हारे  सिद्धांत  की

कहीं  दफना दो या जला दो उन्हें..फिर
तन से लपेट कर वह भस्म बन जाओ  शिव..
और  पीलो  विष ...चले  जाओ  योग  निद्रा  में ...
वही अच्छा रहेगा तुम जैसों के लिए..**



# लोकतंत्र के ३ स्तम्भ और चौथा मीडिया
## जनलोकपाल
**यहाँ शिव के तांडव रूप का जिक्र नहीं है, क्यूंकि अहिंसा के पुजारी तांडव के बारे में सोच भी नहीं सकते !
किन्तु शायद हाकिम को उसी का इंतज़ार है!!

**************************
युगदीप शर्मा (दिनाँक - २० सितम्बर, २०१२)



I wrote a poem ... dedicated to 'Team Anna':

Shivoham, Shivoham, Shivoham!!! (I am The Shiva, I am The Shiva, I am The Shiva)
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You said .. "there'll be fight" ...
you gave it a name of revolution too ...
But it just got..
confined in few morning sips of tea ...
or they blew it away in cigarette fumes..

The news in
the morning news paper
was used by them
to wrap stale breads..
To feed the street dogs ..

Public anger turned out too...
like the dirty drainage running open on the streets
But that was their way ...
to celebrate Holidays ..
to do some stormy..

but You probably didn't understand ...
And started to fight for them ...

what was the matter with you?? were you insane?

you Forgot your place ..
and started to challenge the poor king ..
who sittes on the high throne ..
and Just can see the faces of peoples..
servile and cringed ...
you guys..don't let drop his gaze towards earth/reality...

till now...
you were already having 4 bamboos** up in your ass ...
but you started talking about 5th*** one...
enough is enough!
There is a limit for every thing...
but you crossed that limit..
and grabbed his(The Poor King's) collar ...

Thank God that the King
didn't crushed you by the elephant..
else... you well deserved that.

it's enough!
your honesty...
Your sham .. your principles

Somewhere bury them or Burn them .. and then
apply that ashes to your body, and become Shiva
Drink the poison ...or go to hibernation (by yoga) ...
That'll be much better for someone like you ..###


** 3 columns of constitution and 4th is media
*** Jan lokpal
### Here i am not talking about the angry face (Taandav) of lord Shiva..because the followers of peace/Non-voilance (Ahimsa) can't even think about Voilance..
But it seems the king is waiting fir that only...
**********************
Yugdeep Sharma (Updated - September 20, 2012)

Sunday, June 3, 2012

मैं चाहता हूँ....by युगदीप शर्मा- (25-26 जनवरी, 2004)


(भाग - १ ...)

मैं चाहता हूँ इस धरा को,
स्वर्ग से आगे बढ़ाना;
इस जगत को स्वप्न से, 
बढ़ कर कहीं बेहतर बनाना.

                       मैं चाहता हूँ की यहाँ,
                       हर रात दीवाली मने;
                       हर दिवस-वासर यहाँ,
                       शाश्वत पुनीत होली रहे.

मैं चाहता हूँ अश्रु-कण,
दृग में किसी के हों नहीं;
चारो तरफ सुख-शांति हो,
दारिद्र-दुःख ना हो कहीं.

                       मैं चाहता हूँ जन-जन ह्रदय,
                       उल्लास का संचार हो;
                       हर मनुज परिपूर्ण हो,
                       मधु से मधुर संसार हो.

मैं चाहता हूँ इस धरा पर,
रण का नहीं अस्तित्व हो;
श्रेष्ठता के उत्कर्ष पर,
हर व्यक्ति का व्यक्तित्व हो.

                      मैं चाहता हूँ जड़ता मिटे,
                      नव चेतना का वास हो;
                      ज्ञान का दीपक जले,
                      अज्ञान कीट का नाश हो.

मैं चाहता हूँ हर द्विपद ,
उल्लास से परिपूर्ण हो;
ज्ञान की गंगा बहे,
राम-राज्य संपूर्ण हो.

(भाग -२...)

किन्तु...

सोचने से स्वप्न सब,
साकार हो सकते नहीं;
कर्म और कर्त्तव्य पालन,
स्वप्न से बढ़ कर कहीं.

                      अतः मेरे स्वजन बंधुओ,
                      आज ही संकल्प लें;
                      वसुंधरा उत्थान हेतु,
                      आज ही यह प्रण करें-

"मैं बढूँगा लक्ष्य पथ पर,
हर स्वप्न को साकार करने;
इस धरा को स्वर्ग से, 
आगे नहीं तो स्वर्ग करने."

                      "हे मातृभूमि आशीष दे,
                     यह प्रण हमारा पूर्ण हो;
                     नव-जागरण के नाद से,
                     यह अश्व-मेध सम्पूर्ण हो."
*** युगदीप शर्मा ***
(25-26 जनवरी, 2004)

Monday, May 28, 2012

मनुष्य और पर्यावरण....Part-1 (by Yugdeep Sharma)


ईश्वर ने सोचा होगा ,
संसार बनाने से पहले;
इक सुन्दर सा जगत बनाऊं ,
हरियाली चादर पहने।

स्वछंद विचरते जीव जहाँ पर,
चहुँ दिश जहाँ खुशहाली हो;
नदियों झीलों तालाबों में,
झिल-मिल बहता पानी हो।

हर वन उपवन फूल महकते ,
डाल-डाल पंछी गाते;
कल-कल कर बहते झरने,
बादल पानी बरसाते.

उसने रेगिस्तान बनाये,
स्वर्णिम-मृदु-कालीन बिछाई;
सूरज की उगती किरणों ने,
जीवन की नव-ज्योति जगाई।

पर्वत-पर्वत, वादी-वादी,
जीवन था चहुँ-ओर खिला;
कुछ दुरूह-पर्वत-श्रृंगों को,
हिम-रूप-रजत उपहार मिला।

नदियों ने मिट्टी को सींचा,
मिट्टी ने जीवन-अन्न दिया;
पेड़ों-पौधों-औषधियों ने,
प्राण-वायु प्रदान किया।

सागर ने बादल बरसाए,
मेघों ने जल दान किया;
पवन बही रस-सुगंध लिए,
जिसने जगती को प्राण दिया।

पारस्परिकता, सह-जीविता,
जैव-संतुलन अद्भुत था;
सुन्दर जीवन चक्र बनाया,
जड़ पर चेतन की निर्भरता।

हर जड़-चेतन ने सिर्फ दिया,
ईश्वर के इस भूमंडल में;
था त्याग बस त्याग मिला,
इस जगती के कण-कण में।

*****  युगदीप शर्मा *****
(08/03/2010 @ 10 pm)

तीन नम्बरी सपने ... 12 फरवरी,2009, by युगदीप शर्मा


अभी, सामने सारा जीवन है,
पता नहीं, क्या छुपा हो ,
भविष्य के गर्त में,

पर,सोचता तो बहुत कुछ हूँ मैं,
उसी भविष्य के लिए,

कहते हैं की तीन नम्बरी, ख़्वाबों में ही रहते हैं,
और, कुछ ज्यादा ही।
पर मूर्त नहीं कर पाते उन्हें,
कुछ-कुछ आलसी भी होते हैं वे,

हाँ , मैं तीन नम्बरी हूँ,
ख्वाब भी देखता हूँ, और, आलसी भी हूँ।

पर, अपने स्वप्नों को, साकार करना ही होगा,
देना होगा, आकार उन्हें,
त्याग कर आलस्य,कुछ स्वप्नों से निकल कर,
हकीकत का, वास्तव का,
सामना भी करना ही होगा।


अब बात स्वप्नों की है।

स्वप्न तो बहुत सारे हैं,
ख्वाब भी बहुत ऊँचे हैं,
कुछ लड़खड़ाते कदम भी उठे ही हैं,
करने साकार कुछ सपनों को,

पर, क्या यह सही स्वप्न हैं? या कि गलत?
कैसे करूँ चुनाव स्वप्नों का?

कुछ सपने हैं मेरी महत्वाकांक्षाओं के,
कुछ समाज से जुड़े भी हैं,
कुछ सपने घुमाते हैं सारा सँसार,सारी दुनिया,
और कुछ लिखाते हैं,
कुछ पढ़ाते भी हैं, और कुछ गाते -बजाते  हैं,

किन्तु,
सबसे बड़े दो ही स्वप्न हैं,-
पैसे-यश, मान-सम्मान, प्रतिष्ठा से जुड़े,
और समाज से जुड़े स्वप्न,

तभी,
कभी मैं  बैठा पाता हूँ खुद को,
पैसे, सत्ता, समाज के शीर्ष पर,और कभी सब कुछ त्याग कर ,
अपने लोगों के साथ- धरती पर ही होता हूँ,


दोनों विपरीत हैं,
आकाश हैं- और धरा हैं,

किन्तु, क्या चुनूँ?
आकाश और धरा में से,
कोई एक,
जिसके साथ कर सकूँ,
जीवन सार्थक,
कर सकूँ, संतुष्ट स्वयं को।


यह तो स्वप्न थे !

अब, साकार उन्हें करना ही होगा,
जमीन पर- धरातल पर, उतरना ही होगा,
रास्ते तलाशने ही होंगे,

लेकिन,
कौन से रास्ते? कौन सा मार्ग,  चुनूँ मैं?

हर स्वप्न के,
अलग-अलग मार्ग हैं, रास्ते हैं,
वह भी विपरीत हैं, एक दूसरे के,

एक ही स्वप्न के ढेरों हैं रास्ते,
अनेकों हैं मार्ग!

कौन सा चुनूँ?

यही उलझन, उधेड़-बुन में पाता हूँ खुद को


किस रास्ते चलूँ मैं?
किस मंजिल को चुनूँ मैं?

समझ नहीं पाता हूँ।


फिर भी !
अभी तो तलाश में हूँ,
सही स्वप्नों की ही,
फिर, रास्ता भी निकलेगा, सही ही,

पर, डर है अभी, कि कहीं
इन विपरीत ध्रुवों के बीच में,
त्रिशंकु ना बन जाऊं,
और, फिर,
इस जीवन को
इसी चक्र में ही न जीता चला जाऊं।

पर, अभी,
बहुत कुछ है भविष्य के गर्त में,

तब ठीक तो यही है, की छोड़ दूँ खुद को,
कुछ समय के लिए,
समय के साथ, चक्र के साथ,
धारा के अनुकूल,

जुटा लूँ, कुछ हिम्मत, कुछ हौंसला।

फिर चलूँगा, विपरीत धारा के,
करूँगा साकार स्वप्नों को,
और दूंगा सर्वस्व, उन सपनों को।

और, क्यों ना करूँ ऐसा?
आखिर,
तीन नम्बरी जो हूँ।।

***** युगदीप शर्मा -12 फरवरी,2009 *****