Monday, October 29, 2012

अनवरत...!!! (by युगदीप शर्मा)


मैं तुझे समेटे रखता हूँ समंदर के जैसे
पर कुछ लम्हों की भाप उड़ ही जाती है
कहीं नजर छुपा कर
और दौड़ने लगती है बादलों की तरह

और फिर
इसी तरह निकल पड़ते हैं
कुछ धूप-छाँव के सिलसिले
जिन पर कभी-कभी कुछ
शामें ठहर जाया करती हैं

चंद पलकों के धुंधलके
जम जाते हैं
एक सर्द रात की शक्ल में
तब जिंदगी किसी ग्लेशिअर में
रुकी बर्फ की तरह सर्द लगने लगती है

फिर कभी जब तेरी
यादों की धूप में
पिघलने लगती है
तो लेने लगती है नदी का रूप

इसीलिए फिर खुद को
समेटने लगता हूँ
एक बाँध की तरह
पर तू
न जाने कहाँ से निकल पड़ती है

रास्ते में कहीं उफन पड़ती है
बारिशों के साथ मिलकर
बहा ले जाने मुझे

और अंत में जा मिलती है
समंदर से ही

और
यही सिलसिला
चलता आ रहा है
अनंत काल से
अनवरत ...
*************
युगदीप शर्मा (२५ अक्टूबर, २०१२)

(English Translation )
I...Like an Ocean..,
try to contain you,
but steams of few moments...
blow away..
stealing my eyes ....
And starts to run like clouds ....

And then starts a play...
of some sun and shadows ..
on which occasionally ,..
some Evenings used to rest.....

freeze like a chilled night ....
some Twilight Eyes...
And then,
as a cold Glacier ice..
life seems to be deposited

and, When...
Starts melting it again...
the sun of your memories...

takes place there ...a river

So,I starts winding up
sometimes like a dam..
but, again...out of nowhere ...
you emerge

and start conspiring,
with pouring rain..
to flood me out,
and blow me away...

And, merge in the ocean ...
you again ....and finally...
And this.. consecution ..
's been going on ...

from eternity ....
continuously ...
ceaselessly.....
**************
Yugdeep Sharma (25 October, 2012)

Thursday, October 18, 2012

अहिंसक क्रांति की जरूरत !!


      एक समाज या फिर देश के उत्थान के लिए एक सतत संघर्ष की जरूरत होती है. वह संघर्ष कैसा भी हो सकता है, वह हिंसक भी हो सकता है या फिर अहिंसक भी. इस संघर्ष की दिशा बहुत कुछ समाज, देश, काल और परिस्थितियों पर नर्भर करती है. साथ ही संघर्ष हमेशा बलिदान भी मांगता है. और आगे चल कर यह बलिदान ही उस संघर्ष की सततता, उद्देश्य और सम्पूर्णता में सहायक होता है.

       बहुत अच्छा तो यह हो कि हम बिना उस संघर्ष से गुजरे अपने लक्ष्य को पा सकें, परन्तु आज की परस्थितियों को देखते हुए यह एक असंभव सी बात लगती है.

      ऐसा नहीं है कि भारत में संघर्ष नहीं चल रहा है, संघर्ष चल रहा है, सतत भी है, परन्तु वह दिशा-हीन है. संघर्ष के बहुत से छोटे छोटे टापू जैसे बन गए हैं. हर किसी का अपना एक उद्देश्य है, अपना अपना एक तरीका है. जरूरत है तो उनको एक साथ लाने की. और उन सब को साथ लाने के लिए एक उत्प्रेरक कि आवश्यकता है. लोगों का यह प्रश्न कि "should we not be able to think for ourselves and vote out the corrupts" सही है..लेकिन इन अलग अलग टापुओं कि जड़ में भी यही है कि हर कोई (जो भी थोडा बहुत समझदार है ) अपनी अलग डफली लेकर अपना अलग ही राग बजा रहा है.

       भारत कि बहुसंख्यक जनता को अभी भी इन सब बातों से कोई लेना देना नहीं है. वो अभी भी जाति, धर्म और क्षेत्र के संघर्षों में उलझी हुई है. उन लोगों को साथ लाने के लिए भी उसी उत्प्रेरक कि आवश्यकता है, या कहें कि एक ऐसे नेतृत्व कि आवश्यकता है जिसका वो अन्धानुकरण कर सकें.(स्वंत्रता के आन्दोलन में इसी उत्प्रेरक का नाम "महात्मा गाँधी" था). परन्तु  विडम्बना यही है कि लोग तो अनुकरण (अन्धानुकरण) कर रहे हैं पर वह नेतृत्व अनुकरणीय नहीं है.

       यह सही है कि भारत एक गृह-युद्ध को झेलने लायक अवस्था में नहीं है, परन्तु वह अनेकों प्रकार के संघर्ष तो पहले से ही झेल रहा है. चाहे वह आतंकवाद हो, नक्सलवाद हो, या फिर पूर्वोत्तर का जनजातीय संघर्ष, चाहे वह सिख दंगों कि शक्ल में हो या हिन्दू-मुस्लिम दंगों कि शक्ल में, चाहे वह झारखंड मुक्ति संघर्ष हो या तेलंगाना, या फिर उत्तर-प्रदेश का जिलों कि सीमाओं को लेकर संघर्ष.
     
        तब क्यों नहीं इन सभी संघर्षों को एक नया आयाम देते हुए, सबको समग्र रूप में करते हुए, केवल एक उद्देश्य के लिए, केवल एक संघर्ष का रूप दें, जो कि एक नए भारत का निर्माण हो, नए समाज का निर्माण हो. इसके लिए किसी नए संघर्ष को जन्म देने की जरूरत नहीं है. जरूरत है बस एक समर्थ नेतृत्व देने की, और एक सही दिशा देने की.

(यहाँ मैं यह बात जोड़ना चाहूँगा की मैं हिंसा का कतई पक्षधर नहीं हूँ और मेरे आदर्श गाँधी जी और विवेकानंद जी हैं. और भारत को भी उन्ही के बताये मार्ग पर चलते हुए एक व्यापक अहिंसक क्रांति की जरूरत है... और जो लोग गाँधी जी के मार्ग से असहमत हैं उन्हें मैं 'हिन्द-स्वराज्य ' पढने की सलाह दूंगा.)
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युगदीप शर्मा- दि०-१८/१०/१२
(बकर-अड्डा के फेसबुक पर पूछे गए प्रश्न के जवाब में:
Do we really need an outside catalyst to 'awaken' us or should we not be able to think for ourselves and vote out the corrupts?
Can India afford a civil war at this point of time?)

Monday, October 1, 2012

बारिश!!! (by युगदीप शर्मा)


(You can see the English translation below:)

बहुत बारिश हो रही है बाहर..
और वो बैठे , हाथों में जाम लेकर,
शायराना अंदाज में, पकौड़ियाँ खा रहे होंगे..

पर आज.. बहुत से घरों के बाहर बैठे कुत्ते,
भूखे ही भौंकते रहेंगे!
वो घर जिन्हें डीजल से.. या
रसोई गैस से कभी साबका
नहीं पड़ा.. आज तक!

वो घर, जिनके लिए.. जंगल से बीनी
लकडियाँ भी गीली हो गयीं...और

आज वो लोग बना रहे होंगे
उस सीली हुई लकड़ी के,
धुंए में ही रोटी की शक्लें.

और शायद उन्ही रोटियों को,
अपने दीदों* से निकलती,
बारिशों के साथ निगल कर ,
सो रहेंगे..अगली सुबह तक
टपकती छत से बेखबर !!

और..उधर वो अपनी खुमारियों
का जश्न मना रहे होंगे...
शायद..मुद्रास्फीति की दर को
घटा-बढ़ा रहे होंगे !!!

*दीदे = आँखें (शायद यह शब्द बृज-भाषा में 'दीदार' शब्द से आया होगा कभी.. )
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युगदीप शर्मा (१ अक्टूबर- २०१२ ई० प्रातः १:४८ बजे)


English Translation:
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Rain..!!! (by Yugdeep Sharma)

It's raining heavily.. outside..
And they would be sitting,
having wine in their hands,
must be eating dumplings ..

but, Today the dogs sitting outside..
those houses,
will bark in hunger!

The houses, who never.. ever had
came to know about,
diesel or LPG!

the houses, for whom,
the timber collected from woods
became too wet ...to light their stoves..

They would be making ​​today
the faces of the breads
in the fumes/smoke..
from that wet wood;

And maybe... ;
they will swallow..those loaves
with the rain ..
Emanating from their eyes
and will sleep..
until the next morning
Regardless of leaky roofs!!

And there...
they must have been celebrating ..
their hangover...
playing with the Inflation rate!!!
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Yugdeep Sharma (1-oct,2012, @ 1:48 am)