Wednesday, April 24, 2013

बाजार.. !!! (by युगदीप शर्मा)


मैं..
निकाल कर रख देता हूँ
सब कुछ ...
अपना ....पराया...
जो कुछ भी है...नहीं है...
मेरे हिस्से के
सपने..
अरमान..महत्वाकांक्षाएं ....
मजबूरियां..
बेबसी...लाचारियाँ..
निकाल देता हूँ सब कुछ .
भूख...प्यास...
गुस्सा ..अपमान ...
इर्ष्या..घृणा
सजा देता हूँ शोकेस में...
किसी मझे हुए सेल्समैन की तरह...
रख देता हूँ सब कुछ...
बाजार में ..

और अंत में...वो  पूछते हैं ..."नया क्या है??"

शायद मैंने  अपने शैतान को नहीं निकाला अब तक...!!!
*************
युगदीप शर्मा (२४ अप्रैल-२०१३)

Wednesday, March 27, 2013

बस एक पल चाहिए..(by युगदीप शर्मा)


जिंदगी की किसी सुनसान सड़क पे,
बस तेरा हाथ पकड़ के , अपने हाथों में,
एक अंतहीन सफ़र पे
चलते चला जाना चाहता हूँ.

या किसी पार्क में किसी पेड़ के नीचे,
कोने की किसी बेंच पे बैठी हुई तुम,
तुम्हारी गोद में रख के सिर
सो जाना चाहता हूँ.

चाहता हूँ कि किसी गम में,
डूबते उतरते हुए भी
तुम्हारा हाथ मेरे हाथों में हो...
या कि फिर,किसी खुशनुमा माहौल में भी,
तुम्हारे साथ साथ जहाँ की,
खुशियों का जश्न मनाना चाहता हूँ

दूर किसी वादी में, या किसी पहाड़ की चोटी पे,
पीली, चटख, सर्द धूप में,
सुकून के कुछ लम्हे ,
तुम्हारे साथ बिताना चाहता हूँ.

या किसी, सागर के किनारे,
साहिलों से टकराती हुई
लहरों कि तरह,
टूटती -बिखरती - खिलखिलाती सी तुम्हारी,
हँसीं को, सीने से लगाना चाहता हूँ.

चाहता हूँ कि, सारे रात-दिन
सुबह-शाम, सारे, थम जाएँ वहीँ,
और बस मेरा तुम्हारा साथ हो,
या कि फिर, गुजार जाएँ सभी,
दिन-महीने-साल, जो गुजरना चाहें,
और मैं तुम्हारे सीने पे रख के सिर,
सो जाऊं, एक अनवरत-चिर-खुशनुमा नींद में,
हमेशा हमेशा के लिए.

या अगर , मुमकिन ना हो, इतना सब कुछ,
तो चाहता हु यही,
कि बस इक पल, सुन सकूँ अपना नाम,
तुम्हारे होठों पर, प्यार से,
और फिर,इक उसी पल के सहारे,
सारी जिन्दगी गुजार देना चाहता हूँ.
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युगदीप शर्मा (२५ फरवरी-२०१० और ७ मार्च-२०१०)

Wednesday, February 13, 2013

एहसास..!! (by Yugdeep Sharma)

तेरा वो स्पर्श सुकोमल सुनहरी सा,
मेरे एहसासों में अब तक जिन्दा है.

तेरा वो नैनों से बतियाना,
वो बलखाना, वो शरमाना,
बिन हिले लबों के चुपके से,
दिल ही दिल में, सब कह जाना.

हाथों में ले हाथ, कभी सकुचाते हुए,
हर आहट पे तेरा सिहर जाना,
तेरा वो हर इक पल, हर इक लम्हा,
मेरे एहसासों में अब तक जिन्दा है.

तेरा वो स्पर्श सुकोमल सुनहरी सा,
मेरे एहसासों में अब तक जिन्दा है.

वो नयी सुबह अलसाई सी,
कुछ थकी हुई, घबराई सी,
तेरा वो अंगड़ाई, लेकर उठना,
बिस्तर कि हर सलवट को,
हाथों से ढंकना,

उंगली से लटें
सुलझाते हुए,
दायें ले जाकर, सिर को
हलका सा झटकना,
मुसकाती हुई, तिरछी
नज़रों का फिर इठलाना,
मेरे एहसासों में अब तक जिन्दा है.

तेरा वो स्पर्श सुकोमल सुनहरी सा,
मेरे एहसासों में अब तक जिन्दा है.

वो अंतिम पल तेरी विदाई का,
तेरी पलकों से आंसूं ढलक आना,
मेरा गुस्सा, बेबसी, लाचारी,
दिल का रोना, होठों का मुसकाना,
साँसों में तूफां सुलगता सा,
वो दर्द अजब सा चुभता सा,
वो, पल में दुनिया-
आँखों में फिर जाना,
मेरे एहसासों में अब तक जिन्दा है.

तेरा वो स्पर्श सुकोमल सुनहरी सा,
मेरे एहसासों में अब तक जिन्दा है.
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युगदीप शर्मा (२५ मई-२०११, रात्रि ९:०० बजे)
correction date: 13/02/2013

बुद्ध..!!! (By Yugdeep Sharma)


याद है? जब पहले पहल मिली थी तुम,
बगल से एक मुस्कान के साथ गुजर गयी थी.
एक परफ्यूम की गंध के साथ
साँस में बस गयी थी तुम
तब ना कोई हवा चली थी,
ना कोई वोइलिन बजी थी.

देखा था मैंने तुझे, पलट कर जरूर,
जैसा कि मैं हर बंदी को देखता था.
क्या पता था कि वही तुम,
एक दिन आ मिलोगी मुझे,
सपने के जैसे, पलकों पे बैठ जाओगी.

दोबारा कब मिले थे, अब ये तो याद नहीं,

पर हाँ, वो एहसास
अभी भी गुदगुदा जाता है अक्सर,
शायद तुमने कुछ कहा था और मैं,
आँखें फाड़ फाड़ के देख रहा था तेरे चहरे को.


फिर जब तुमने फिर से कहा था तो,
हडबडाकर कुछ तो बोला था मैं भी..
और तुम फिर से मुस्कुरा के,
चली गयी थी...फिर से मिलने को..
वो दिन-
उसे तारीख कहूँ तो तौहीन होगी उन लम्हों की ..
-गुजरा नहीं है आज तक...
अटक गया है कहीं...कलेंडरों से परे.


फिर
ना जाने कब.. सब कुछ बदल गया...
आहिस्ते आहिस्ते...
बिना कुछ बोले भी..
जो आज तक कायम है..

बहुत सी बातें...जो तुमने कभी बोलीं ही नहीं..
बरबस ही सुन लिया करता हूँ मैं.
और तुम भी तो समझ लेती हो हर बात को..
अनकहे ही..

भाषा के मायने बदल गए हैं.. शायद...
पंख फैला लिए हैं उसने...
एहसासों को सुनने लगी है वो अब...
आँखों से बतियाती है...
शब्दों/ ध्वनियों की मोहताज नहीं है वो..


तुम्हारे साथ...हर एक पल...
एक जमीनी एहसास है...
बादलों के पार नहीं पहुँचता कभी भी ..
बहुत मजबूत हैं पांव उसके...या कि शायद जड़ें हैं.
जो कहीं गहरे तक, समेटे हुए हैं मुझे..


तेरे साथ होने पर...हर गम, हर ख़ुशी...
अपने मायने बदल देती है...
सब कुछ नया नया सा लगता है..
सारी सृष्टी झूमने लगती है इर्द-गिर्द...
इच्छा/आशा/अभिलाषा/महत्वाकांक्षाओं से परे...
शायद...बुद्ध बन जाता हूँ मैं!!
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युगदीप शर्मा (१३ फरवरी, २०१३)

Wednesday, January 23, 2013

कशमकश..!! (by Yugdeep Sharma)


ये सामाजिक मर्यादाएं,
कैसे तोडूँ, कैसे छोडूँ,
माना तुम अच्छी लगती हो,
कैसे कह दूँ, कैसे बोलूँ..!!

कर-कर गिनती हार गया मैं,
रिश्तों में इतनी गांठें हैं,
जिनको हम अपना कहते थे,
उन अपनों ने ही ग़म बांटे हैं.
ये रिश्तों की अ-सुलझ गांठें,
कब सुलझाऊं, कैसे खोलूं,
माना तुम अच्छी लगती हो,
कैसे कह दूँ, कैसे बोलूँ..!!

तुमसे पूछा- साथ चलोगी?
उत्तर में फिर प्रश्न मिले,
प्रश्नों को हल करने बैठा,
तो कुछ मुर्दा जश्न मिले.
फिर तुम्ही बताओ इन प्रश्नों का
हल किस पोथी पुस्तक में खोजूं?
माना तुम अच्छी लगती हो,
कैसे कह दूँ, कैसे बोलूँ..!!

अब तक चेहरे बहुत पढ़े हैं,
पर तेरे भाव समझ ना पाया,
जितना गहरे उतर के देखा,
उतना घना अँधेरा पाया,
सारे दीपक बुझे पड़े हैं,
मैं किस-किस दीपक को लौ दूँ,
माना तुम अच्छी लगती हो,
कैसे कह दूँ, कैसे बोलूँ..!!

जीवन में अगणित दुविधाएं,
लंगर डाले पड़ी हुई हैं,
हर ओर घना तूफ़ान मचा है,
जीवन तरणी फंसी हुई है,
फिर इन जीवन झंझावातों में
तुम्ही बताओ क्यूँ ना डोलूं,
माना तुम अच्छी लगती हो,
कैसे कह दूँ, कैसे बोलूँ..!!
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युगदीप शर्मा ( दि०: २३ जनवरी, २०१३)