Wednesday, December 28, 2016

कानपुर रेल दुर्घटना और मीडिया

ज्यादा पुरानी बात नहीं है जब गाँव देहात में कार तो क्या स्कूटर भी एक विलासिता की वास्तु हुआ करता था। उन दिनों से ही हमारे घर एक पुरानी पर मजबूत एटलस सायकल हुआ करती  थी। रोज सुबह मुझे दफ्तर तक ढोने के अलावा घर के और भी बहुत से काम उसी से हो जाया करते थे।  मसलन चक्की से गेंहू पिसाना हो या खेत से चारा ढो कर लाना, पैंठ (गांव का साप्ताहिक बाजार) से  सप्ताह भर का राशन-पानी, सब्जी आदि ले कर आना हो या कोई और काम सब में इस सायकल से बहुत सुविधा मिलती। समय के साथ सायकल पुरानी पड़ने लगी, अर्जे-पुर्जे सब ढीले पड़ने लगे, और समय समय पर मिस्त्री के चक्कर लगाना भी एक मजबूरी बन गया।
सायकल काम अब भी वैसे ही आती है पर अब घर की आर्थिक स्थिति सुधरने, और सुरक्षा , समय की बचत के लिहाज से सोचा गया कि एक कार ले ली जाये।  बात अभी प्लानिंग फेज में ही है।  दो चार शोरूम के चक्कर लगाने और १०-१५ कार देखने के बाद एक जापानी कार कंपनी की कार फ़ाइनल भी कर ही दी है। सोने       पै सुहागा यह कि कार कंपनी वाले फाइनेंस की भी बहुत ही अच्छी स्कीम दे रहे हैं।  २० साल के लिए १ प्रतिशत ब्याज पर कार घर आ जाएगी।
आजकल घर पै कार खड़े करने के लिए जगह का इंतजाम चल ही रहा था कि एक नया बवाल खड़ा हो गया।
हुआ यूँ कि कल हम अपनी उसी पुराने दिनों की साथी सायकल को लेकर दफ्तर जा रहे थे। कुछ तो रास्ता ख़राब था और कुछ पुर्जे ढीले ऊपर से सर्दी का टाइम। कोहरे में गढ्ढा दिखा नहीं,  अगला पहिया गढ्ढे में गया, ठीक उसी टाइम चेन भी उतर गयी, और ब्रेक थोड़े ढीले थे ही। बस बैलेंस बिगाड़ा, हम मुंह के बल सायकल हमारे ऊपर।
अब श्रीमती जी मुंह फुलाए बैठी हैं, कह रही हैं कि सायकल तो ठीक कराते नहीं, प्लान कार के बना रहे हैं। कार को छोडो, पहले सायकल ठीक कराओ।
अब आप ही सुझाइये कि उन्हें किस तरह समझायें कि कार का मुद्दा सायकल से अलग है। बात बिलकुल सही है की सायकल सही कराई जाये पर समय की बचत और सुरक्षा को ध्यान रखते हुए, साथ ही ज़माने के साथ कदम मिला के चलने के लिए अगर साथ ही कार भी आ जाये तो क्या मुश्किल है।
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आजकल एक फैशन सा चल रहा है, कि कोई कुछ अच्छा करने का सोचे उसमें लोग ५० नुक्स निकल देते हैं।  हर किसी की प्राथमिकताएं अलग होती हैं, ये कोई नहीं सोचता।
"बात करते हैं स्मार्ट सिटी की, अभी के शहर सुधर नहीं रहे।"
"घर घर शौचालय बनवाने की बात करते हैं, पहले सार्वजनिक शौचालय तो बनवा लो।"
"बुलेट ट्रैन लाने से पहले अपनी रेलगाड़ी तो सुधार लो।"
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अरे भाई दोनों काम साथ साथ भी तो हो सकते हैं की नहीं ? ये क्या बात हुई कि "ऐसा मत करो, पहले वैसा करो।"
ऐसा भी तो कह सकते हो "ऐसा भी करो पर साथ में वैसा भी हो तो अच्छा है।"
सही बात है कि रेल सफर सुरक्षित होना चाहिए, इस दिशा में और भी ज्यादा काम की जरूरत है।  पर भाई ये जरूरी तो नहीं की इस काम के लिए बुलेट ट्रेन का प्रोजेक्ट बंद कर देना चाहिए।
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कहने कहने का ढंग है जी।
अगला कुछ अच्छा करने आया है, वो तो करके ही रहेगा।  अप्प्रिसिएट करोगे तो मन से करेगा,  नहीं करोगे तो भी ये वाला तो करके रहेगा, पर उसके बाद जो अगला आएगा वो घंटा कुछ नहीं करेगा। २००४ से २०१४ तक देख ही लिया होगा।
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#कानपुर_रेल_दुर्घटना_और_मीडिया

Tuesday, December 6, 2016

मो सम कौन कुटिल खल कामी।

मो सम कौन कुटिल खल कामी।
तुम सौं कहा छिपी करुणामय, सबके अन्तर्जामी।
जो तन दियौ ताहि विसरायौ, ऐसौ नोन-हरामी।
भरि भरि द्रोह विषै कौ धावत, जैसे सूकर ग्रामी।
सुनि सतसंग होत जिय आलस , विषियिनि संग विसरामी।
श्री हरि-चरन छांड़ि बिमुखनि की निसि-दिन करत गुलामी।
पापी परम, अधम, अपराधी, सब पतितन मैं नामी।
सूरदास प्रभु ऊधम उधारन सुनिये श्रीपति स्वामी।।
मो सम कौन कुटिल खल कामी।।
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बाबा गाया करते थे।