Tuesday, September 26, 2023

अर्बन नक्सल . .

 काश 

काश तुम में 

थोड़ी  तो अकल होती 

थोड़ा विवेक होता 


तो तुम भी देख पाते 

सच्चाई 

वामपंथी नैरेटिवों से परे 

देख पाते कि जहाँ और भी है 


काश तुम भी जमीन से जुड़े होते 

तो यूँ  वातानुकूलित वातावरण में बैठ 

गरीबी, रोटी , संघर्षों को 

चुराई हुई कविताओं के माध्यम से 

रोमैंटेसाइज नहीं करते,

 

कुछ ठोस काम करते 

धरातल पर 


पर शायद ऐसा नहीं हुआ 

तभी तुम इतने अंधे हो 

कि देश की , समाज की 

सच्चाई देखने से 

रोकती है तुम्हारी 

अर्बन नक्सल सोच 

और कुण्ठा ,

और बस 

लगातार दुत्कारे जाने  बाद भी 

लगे  रहते हो 

समाज को बरगलाने में 

फर्जी ख़बरें बनाने, फैलाने में 

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काश तुम्हें थोड़ी अकल मिली होती 

काश तुम में थोड़ी समझ होती 


काश

काश

(संलग्न चित्र में लिखी "कविता" के उत्तर में )
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युगदीप शर्मा 
२६ सितम्बर २०२३ दोपहर ०१:३० बजे , गुरुग्राम में 





Friday, March 31, 2023

जय जवान, जय किसान!

 जब किसान बूढ़ा हो जाता है 

और उसके बेटे नाती पोते 

उसकी विरासत संभाल लेते हैं, 

तब उन आँखों की चमक देखी क्या कभी?


उनकी  आँखों में झाँको 

जहाँ भर की हरियाली दिखेगी 


छोटी जोत बड़े कुनबों में 

खेती नौकरी साथ चलती है


खेती नौकरी में भाइयों में

छोटे बड़े का भेद 

-यदि है 

तो 'संस्कारों' की गलती है 

'सरकारों' की नहीं। 


मेरे गाँव में, अभी भी 

होश सँभालते ही 

खेत के पेड़ों से लटकते 

लड़के मिलते हैं, 

लाशें नहीं।  

फ़ौज में जाने का जज्बा ही कुछ ऐसा है।  



चिता को आग देता, फौजी का बाप 

दुसरे बेटे को भी जब फ़ौज में 

भेजने का प्रण करता है 

तब उस माई और भौजाई के आंसू 

उसका सम्बल होते हैं , प्रश्न नहीं!


और मेरे दोस्त, यही सम्बल 

आकाश गुंजा देता है 


'जय जवान जय किसान' से 


पर हाँ 

एक बात तो है- 


जब हम चाँद की बातें करें 

तुम रोटी दिखा देना!

कहें हरियाली बहुत है आज तो  

झुलसते मैदां बता देना 

गर कहे कोई 

कि आज फिर बारिश का मौसम है 

उसे तुम भूख और मजदूर की 

अंतड़ियाँ गिना देना !


वो क्या है कि 

कविता में 

जब तक ये बातें न आएँगी  

कोई कैसे इस क्रांति का 

कविताकार कहायेगा। 


कोई कैसे तुम्हें इस क्रांति का 

कविताकार बतायेगा। 


-- एक टाइमपास तथाकथित कवि 

युगदीप शर्मा 

३१ मार्च २०२३ अपराह्न १२.५५ बजे 

गुरुग्राम में 
तस्वीर में लिखी कविता के जवाब में 



क्रांति

 "क्या चाहिए तुम्हें? 

- क्रांति ?

पर क्यों ? "

"बस चाहिए -

तभी तो हमारा नाम होगा ,

सम्मान होगा ,

कहवा घरों में बैठ कर 

धुंए के छल्लों से  

क्रांति  की पेंटिंग बनाएंगे 


दारु के ठेकों पर 

छलकते  जामों से 

भुखमरी के पैमाने उठाएंगे 


फिर किसी  प्रतिभा को 

क्रांति के सपने दिखा 

झोंक देंगे भट्टी में 


उसी भट्टी की तपिश से 

भुने सिके पॉपकॉर्न खाएंगे। 


और यदि 

उस प्रतिभा का नाम भी 

प्रतिभा ही हुआ 

या लिंग उस आधी आबादी से हुआ 

तब उसे भी झोंक देंगे 

क्रांति की भट्टी में 


निचुड़ जाने तक 

जिसके बदन की तपिश 

बेडरूमों को गरम रखेगी 

जो की क्रांति की पहली शर्त है। "


आओ साथी क्रांति करें !


युगदीप शर्मा - कभी कभी कवि 

३१ मार्च २०२३ प्रातः ११.५५ बजे 

गुरुग्राम 




Wednesday, August 3, 2022

दिमागी खुजलियाँ

आज इसने यह कहा 

कल था उसने वह कहा 

यह कब कहा 

यह क्यों कहा


यह कहा 

वह क्यों नहीं 

जब वह कहा 

तब क्यों कहा 


मैंने कहा 

तूने कहा 

क्या क्या कहा 

कब कब कहा 


क्यों क्यों कहा 

कैसे कहा 

ऐसे कहा 

वैसे कहा 


इस पर तो 

इतना कहा 

उस पर जैसे-

तैसे कहा 


कैसे कहा 

क्यूँकर कहा 


बोला तो 

क्या क्या कहा 

जब चुप रहा 

तो क्यों रहा 


चुप क्यों रहा 

बोला कहाँ ?

बोला जहाँ 

तौला कहाँ ?


उसको ऐसे बोलना था 

इसको ऐसे बोलना था 

हमको ऐसे बोलना था 

सबको ऐसे बोलना था 


उसने जब ऐसे कहा तो 

मैंने उत्तर यूँ दिया 

मैंने जब वैसे कहा 

तो तूने उत्तर क्यों  दिया ?


फेसबुक 

कुश्ती का दंगल, 

व्हाट्सएप्प पर 

है अखाड़ा 

टीवी-योद्धा 

पिल पड़े हैं  

मुंह जुबानी युद्ध है  


बातों के तलवार भाले 

बातों में ही बिजलियाँ हैं 

करना -धरना कुछ नहीं बस 

सब 'दिमागी खुजलियाँ ' हैं 


3 aug 2022, Thursday afternoon 12 pm, in office

Friday, October 11, 2019

असलियत ...!!! (by युगदीप शर्मा)

तेरी आँखों पे ग़ज़लें हज़ारों हुईं,
तेरी नज़रों ने कातिल होने
के इलज़ाम लिये।

तेरी पलकों पे ओस भी कई दफा ठहरी,
तेरे लबों को बहुतों ने जाम कहा।

तेरे रुख में बहुतों को चाँद नज़र आया
तेरी जुल्फों से कई बार घटा बरस गई
तेरे पोरों को किसी ने फूल कहा
तो कुछ ने हथेली पर उठाए पाँव,
कि कहीं जमीं से मैले न हों।

तेरी अँगड़ाइयाँ जंगों का सबब बनी,
तेरो अदाओं से हज़ारों हलकान हुए।
--
जिसने जैसा चाहा, 
वैसा रूप देखा।
किसी ने पूजा, किसी ने चाहा, किसी ने भोगा,
किसी ने मूरत , किसी ने वस्तु,
तो किसी ने तुमको बाजार बना दिया
कभी जंग, कभी कारण, तो कभी हथियार बनी ,

और तुम, खुद भी भूल गयी कि

तुम क्या थी, क्या हो, और क्या होगी।
यही तो माया है। 
महा ठगिनी।

ये सब शायरों के ख्वाब थे,
और कुछ तरीके,
कि तुम भूल जाओ अस्तित्व,
और जी लो , दूसरों ले मुताबिक।

और हाँ,
बराबरी?

हह... भूल जाओ।

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युगदीप शर्मा ( दिनांक ११ अक्टूबर, २०१९ , प्रातः ११ बजे , पुणे में )

आज चलो कुछ और लिखें ...!!! (by युगदीप शर्मा)


कुछ झूठे जज्बात लिखें

या फिर से वो ही बात लिखें।

सदियों लंबी रात लिखें या

जगना बरसों बाद लिखें।


कलमों की चिंगारी से

कागज में लगती आग लिखें

आ चल फिर से कुछ आज लिखें।




गूंगों की आवाज लिखें,

या पंख कटी परवाज लिखें ।

इन शहरी खंडहरों से,

उड़ती इंसानी राख लिखें।


ऊंचे महलों को थर्रा दे,

वह अश्कों के सैलाब लिखें।

आ चल फिर से कुछ आज लिखें।


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युगदीप शर्मा ( दिनांक ८ अक्टूबर, २०१९ , रात्रि ११ बजे , पुणे में )

आलस - नामा...!!! (by युगदीप शर्मा)

पड़े पड़े अब क्या करें , करना है कुछ काम,
या फिर चद्दर तान के , करें और आराम।
करें और आराम, जब तक न मन अकुतावे,
लेटे लेटे हो जायँ बोर, और चैन न आवै।
कहि भैया कविराय, आलसी वही बड़े,
जो चाहे जो हो जाये, रहें बस पड़े पड़े।।

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युगदीप शर्मा ( दिनांक १० अक्टूबर, २०१९, पुणे में )         


Tuesday, April 2, 2019

फिल्म समीक्षा : दंगल

इस शुक्रवार आमिर खान की नयी फिल्म लगी है।  इसके बारे में पक्ष या विपक्ष में कुछ कहना वैसे तो बर्र के छत्ते में हाथ डालने जैसा कुछ होगा। फिर भी उम्मीद है की इसे सिर्फ एक ईमानदार समीक्षा के नजरिये से ही देखा जायेगा।

जैसा की हर उस फिल्म के साथ होता है, जिसमे आमिर का नाम जुड़ा हो, इस फिल्म के प्रमोशन के लिए भी कुछ नए तरह के हथकंडे अपनाये गए। इसमें सबसे प्रमुख तो आमिर का अपने वजन के साथ खिलवाड़ था।  मुम्बइया फिल्मो के लिए यह एक अनोखी चीज है और यही बात अपने आप में सुर्खियां बटोरने वाली साबित हुई। इससे पहले भी ऐसा ही हम 'गजनी' और 'ओम शांति ओम' से पहले भी देख चुके हैं।

दूसरी बात फिल्म का प्रकार है। यह फिल्म एक डॉकू - ड्रामा फिल्म है और इसे मुम्बइया फिल्मो के उस नए और सकारात्मक रुझान की अगली कड़ी कहा जा सकता है, जिसमें खेल, या वास्तविक घटनाओ से प्रेरित फ़िल्में बन रही हैं।  हालाँकि इस तरह की फिल्मों में हर किरदार को पूरी ईमानदारी से उतार पाना बहुत मुश्किल काम है। और अक्सर घटनाओ को सिनेमाई नाटकीयता देने के लिए निर्देशक अपने अनुसार तोड़-मरोड़ देते हैं।

इस फिल्म में विषय, परिवेश और पात्रों को लेकर काफी रिसर्च की गयी है और वो झलकती भी है। यही बात इसे आम मुम्बइया फिल्मों से अलग करती है।  किन्तु यह बात उतनी ही सामान्य होनी चाहिए ही। हर फिल्म के लिए इतनी ही रिसर्च और मेहनत जरूरी है ही। मुम्बइया फिल्मो से तुलना करने पर यह फिल्म एक ख़ास फिल्म जरूर लग सकती है पर समग्र रूप से देखने पर यह एक साधारण फिल्म ही है।

इस फिल्म की हो रही तारीफ को देख कर २ कहावतें इस पर एकदम सटीक बैठती हैं - 'अंधों में काना राजा' या फिर 'बावरे गाँव में ऊँट'।
चुनाव आपका है।  मैं तो इसे ५ में से ३ सितारे ही दे सकता हूँ।  

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युगदीप शर्मा
जनवरी २०१७ 

Wednesday, January 25, 2017

छुटकी वाली सड़कछाप कहानी

उसने कम्बल से मुंह निकाला, रात अभी भी गहरी थी। एक कंपकंपी के साथ वो उठा। अपना कम्बल बराबर में सोई गठरी को उढा कर, एक बीड़ी सुलगाई, और किटकिटाते दांतो के साथ सड़क के उस पार जलते अलाव की ओर चल दिया।
कम्बल की गर्माहट से गठरी खुल गयी थी।

डिस्क्लेमर-धूम्रपान स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है।

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युगदीप शर्मा दिनांक २५ जनवरी २०१७ सायं ५.३० बजे 

Wednesday, December 28, 2016

कानपुर रेल दुर्घटना और मीडिया

ज्यादा पुरानी बात नहीं है जब गाँव देहात में कार तो क्या स्कूटर भी एक विलासिता की वास्तु हुआ करता था। उन दिनों से ही हमारे घर एक पुरानी पर मजबूत एटलस सायकल हुआ करती  थी। रोज सुबह मुझे दफ्तर तक ढोने के अलावा घर के और भी बहुत से काम उसी से हो जाया करते थे।  मसलन चक्की से गेंहू पिसाना हो या खेत से चारा ढो कर लाना, पैंठ (गांव का साप्ताहिक बाजार) से  सप्ताह भर का राशन-पानी, सब्जी आदि ले कर आना हो या कोई और काम सब में इस सायकल से बहुत सुविधा मिलती। समय के साथ सायकल पुरानी पड़ने लगी, अर्जे-पुर्जे सब ढीले पड़ने लगे, और समय समय पर मिस्त्री के चक्कर लगाना भी एक मजबूरी बन गया।
सायकल काम अब भी वैसे ही आती है पर अब घर की आर्थिक स्थिति सुधरने, और सुरक्षा , समय की बचत के लिहाज से सोचा गया कि एक कार ले ली जाये।  बात अभी प्लानिंग फेज में ही है।  दो चार शोरूम के चक्कर लगाने और १०-१५ कार देखने के बाद एक जापानी कार कंपनी की कार फ़ाइनल भी कर ही दी है। सोने       पै सुहागा यह कि कार कंपनी वाले फाइनेंस की भी बहुत ही अच्छी स्कीम दे रहे हैं।  २० साल के लिए १ प्रतिशत ब्याज पर कार घर आ जाएगी।
आजकल घर पै कार खड़े करने के लिए जगह का इंतजाम चल ही रहा था कि एक नया बवाल खड़ा हो गया।
हुआ यूँ कि कल हम अपनी उसी पुराने दिनों की साथी सायकल को लेकर दफ्तर जा रहे थे। कुछ तो रास्ता ख़राब था और कुछ पुर्जे ढीले ऊपर से सर्दी का टाइम। कोहरे में गढ्ढा दिखा नहीं,  अगला पहिया गढ्ढे में गया, ठीक उसी टाइम चेन भी उतर गयी, और ब्रेक थोड़े ढीले थे ही। बस बैलेंस बिगाड़ा, हम मुंह के बल सायकल हमारे ऊपर।
अब श्रीमती जी मुंह फुलाए बैठी हैं, कह रही हैं कि सायकल तो ठीक कराते नहीं, प्लान कार के बना रहे हैं। कार को छोडो, पहले सायकल ठीक कराओ।
अब आप ही सुझाइये कि उन्हें किस तरह समझायें कि कार का मुद्दा सायकल से अलग है। बात बिलकुल सही है की सायकल सही कराई जाये पर समय की बचत और सुरक्षा को ध्यान रखते हुए, साथ ही ज़माने के साथ कदम मिला के चलने के लिए अगर साथ ही कार भी आ जाये तो क्या मुश्किल है।
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आजकल एक फैशन सा चल रहा है, कि कोई कुछ अच्छा करने का सोचे उसमें लोग ५० नुक्स निकल देते हैं।  हर किसी की प्राथमिकताएं अलग होती हैं, ये कोई नहीं सोचता।
"बात करते हैं स्मार्ट सिटी की, अभी के शहर सुधर नहीं रहे।"
"घर घर शौचालय बनवाने की बात करते हैं, पहले सार्वजनिक शौचालय तो बनवा लो।"
"बुलेट ट्रैन लाने से पहले अपनी रेलगाड़ी तो सुधार लो।"
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अरे भाई दोनों काम साथ साथ भी तो हो सकते हैं की नहीं ? ये क्या बात हुई कि "ऐसा मत करो, पहले वैसा करो।"
ऐसा भी तो कह सकते हो "ऐसा भी करो पर साथ में वैसा भी हो तो अच्छा है।"
सही बात है कि रेल सफर सुरक्षित होना चाहिए, इस दिशा में और भी ज्यादा काम की जरूरत है।  पर भाई ये जरूरी तो नहीं की इस काम के लिए बुलेट ट्रेन का प्रोजेक्ट बंद कर देना चाहिए।
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कहने कहने का ढंग है जी।
अगला कुछ अच्छा करने आया है, वो तो करके ही रहेगा।  अप्प्रिसिएट करोगे तो मन से करेगा,  नहीं करोगे तो भी ये वाला तो करके रहेगा, पर उसके बाद जो अगला आएगा वो घंटा कुछ नहीं करेगा। २००४ से २०१४ तक देख ही लिया होगा।
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#कानपुर_रेल_दुर्घटना_और_मीडिया