(भाग - १ ...)
मैं चाहता हूँ इस धरा को,
स्वर्ग से आगे बढ़ाना;
इस जगत को स्वप्न से,
बढ़ कर कहीं बेहतर बनाना.
मैं चाहता हूँ की यहाँ,
हर रात दीवाली मने;
हर दिवस-वासर यहाँ,
शाश्वत पुनीत होली रहे.
मैं चाहता हूँ अश्रु-कण,
दृग में किसी के हों नहीं;
चारो तरफ सुख-शांति हो,
दारिद्र-दुःख ना हो कहीं.
मैं चाहता हूँ जन-जन ह्रदय,
उल्लास का संचार हो;
हर मनुज परिपूर्ण हो,
मधु से मधुर संसार हो.
मैं चाहता हूँ इस धरा पर,
रण का नहीं अस्तित्व हो;
श्रेष्ठता के उत्कर्ष पर,
हर व्यक्ति का व्यक्तित्व हो.
मैं चाहता हूँ जड़ता मिटे,
नव चेतना का वास हो;
ज्ञान का दीपक जले,
अज्ञान कीट का नाश हो.
मैं चाहता हूँ हर द्विपद ,
उल्लास से परिपूर्ण हो;
ज्ञान की गंगा बहे,
राम-राज्य संपूर्ण हो.
(भाग -२...)
किन्तु...
सोचने से स्वप्न सब,
साकार हो सकते नहीं;
कर्म और कर्त्तव्य पालन,
स्वप्न से बढ़ कर कहीं.
अतः मेरे स्वजन बंधुओ,
आज ही संकल्प लें;
वसुंधरा उत्थान हेतु,
आज ही यह प्रण करें-
"मैं बढूँगा लक्ष्य पथ पर,
हर स्वप्न को साकार करने;
इस धरा को स्वर्ग से,
आगे नहीं तो स्वर्ग करने."
"हे मातृभूमि आशीष दे,
यह प्रण हमारा पूर्ण हो;
नव-जागरण के नाद से,
यह अश्व-मेध सम्पूर्ण हो."
*** युगदीप शर्मा ***
(25-26 जनवरी, 2004)