धर्म पूछती मजहबी गोलियाँ
कलावा बाँधे घूमते लकड़बग्घे
मीनारों से गूँजते युद्ध के साप्ताहिक फरमान
कुछ गिनती और आंकड़ों में सिमटी हुई,
घटनायें हर रोज,
यहाँ वहाँ
नकारी जाती हुईं।
लकड़बग्घों की संख्या
शतुरमुर्गों के बनिस्पत कुछ भी नहीं
फिर भी
शतुरमुर्गों के
पूरे गाँव के गाँव,
झटके में खत्म कर;
जिंदगियों को
आतंक के रेगिस्तान में धकिया
लकड़बग्घों के जश्न
तहजीब में गिने जाते हैं
वहीं नैरेटिवों की
राह में नुचती हुई ,
घिसटती ज़िंदा लाशें
यदा कदा मुर्दा खबरों के पन्ने पर,
एक कोने पर जगह पा
इतराती हैं ।
राष्ट्रों की संयुक्त सभा
चिंता व्यक्त करती है
करोड़ों अरबों की तुलना में
दो-चार-दस-सौ जिंदगियों का मूल्य
कुछ भी नहीं
बस आंकड़े भर हैं
रपटों में यही आंकड़े
हर साल बढ़ते हैं
फिर
‘रिलीजन’ और ‘मजहबों’ की बिना पर
‘छुपते’ या ‘छपते’ हैं
और हम तुम
अपनी केंचुलों में सुरक्षित
आंकड़ों की शह पर
कठपुतलियों सा खेलते हैं
हजारों सालों से
बने हुए ढर्रे
आजमाये हुए पैंतरे
फिर फिर आजमाये जाते हैं
और हम
मोमबत्तियों की रौशनी में
लहालोट - सम्मोहित
पहुँच जाते हैं
ले गर्दनें
छुरों के बीच
मजहबी जहान का यही सच है
- युगदीप (२३-२७ अप्रैल २०२५, रात्रि डेढ़ बजे)
(पहलगाम पर)
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